Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 414
________________ २४. श्रमनिष्ठ आचार्य घासीलाल स्थानकवासी परम्परा के मरुधर सत घासीलाल जी वीसवी सदी के यशस्वी विद्वान् थे। जैन-जैनेतर सम्प्रदायो मे वे प्रसिद्ध थे। उनका जन्म मेवाड मे हुआ। आचार्य जवाहरलाल जी के पास वी०नि० २४२८ (वि० १९५८) माघ शुक्ला त्रयोदशी वृहस्पतिवार को उन्होने भागवती-दीक्षा स्वीकार की। प्रारभ मे उनकी बुद्धि बहुत मद थी। एक नवकार मन को कठान करते उन्हे अठारह दिन लगे। कवि ने कहा है करत-करत अभ्यास ते, जडमति होत मुजान। रसरी आवत जात है, शिल पर परत निशान ।। इस पद्य को उन्होने अपने जीवन मे चरितार्थ कर दिखाया। एकनिष्ठा से वे सरस्वती की उपासना मे लगे रहे। व्याकरण, न्याय, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र मे उन्होने प्रवेश पाया और एक दिन वे हिन्दी, सस्कृत, प्राकृत, मराठी, गुजराती, फारसी, अग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओ के विज्ञ बन गये। धर्म-प्रचारार्थ उन्होने अनेक गावो और नगरो मे विहरण किया। तीस वर्षों मे बत्तीस सूत्रो की टीका-रचना कर आगमो की व्याख्या को सस्कृत, गुजराती और हिंदी में प्रस्तुत किया। टीकाओ के अतिरिक्त अन्य साहित्य भी उन्होने रचा है। उनकी सरल-सौम्य वृत्ति का जनता पर अच्छा प्रभाव रहा। ___आगम टीकाओ के कार्य को सफलतापूर्वक निर्वहण के लिए सरसपुर (अहमदाबाद) मे सोलह वर्ष तक रहे। इस कार्य के सम्पन्न होते ही उन्होने अनशनपूर्वक ४-१-७३ को तदानुसार वी०नि० २५०० (वि० २०३०) को इस जगत् से विदा ले ली।

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