Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 418
________________ २७ सौम्यस्वभावी आचार्य आनन्दऋषि आनन्दऋपि जी स्थानकवासी परम्परा श्रमण संघ के प्रमुख आचार्य हैं। वे ऋपि सम्प्रदाय की परम्परा के हैं । ऋपि सम्प्रदाय की परम्परा मे ऋषिलव जी, सोम जी, मोतीराम जी, सोहनलाल जी, काशीराम जी आदि अनेक प्रभावी आचार्य हुए हैं। वर्तमान मे आनन्द ऋपि जी इस परम्परा को उजागर कर रहे है तथा श्रमण सघ के दयित्व को भी सम्भाल रहे है। ___आनन्दऋषि जी का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के अहमद नगर जिले के अन्तर्गत सिराल चिंचोडी ग्राम के गूगलिया परिवार मे वी०नि०२४२७ (वि०पू० १९५७) मे हुआ था। उनके पिता का नाम देवीचन्द्र जी था एव माता का नाम हुलासी बाई था। उनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम उत्तमचन्द जी था। आनन्दऋपि जी का नाम गृहस्थ जीवन मे नेमिचन्द्र जी था। आनन्दऋपि जी के पिता का देहान्त उनकी वाल्यावस्था मे हो गया था । अत्त माता हुलासी देवी ही बालक का पालन-पोषण करने मे माता-पिता दोनो की भूमिका कुशलतापूर्वक वहन करती थी। हुलासी देवी का धर्मप्रधान जीवन था। वह पाचो पर्व-तिथियो पर उपवास करती एव प्रतिदिन सामायिक करती, पाक्षिक प्रतिक्रमण करती एव अन्य वहिनो की धर्म-साधना मे सहयोग प्रदान करती थी। मा के धार्मिक सस्कारो का जागरण वालक मे भी हुआ। हुलासी देवी से प्रेरणा प्राप्त कर बालक ने आचार्य रत्नऋषि जी से सामायिक पाठ, प्रतिक्रमण, तात्त्विक नथ एव अध्यात्म प्रदान स्तवन कठस्थ किए थे। बालक मे वैराग्य-भाव का अभ्युदय हआ। माता से आदेश प्राप्त कर वी० नि० २४४० (वि० पू० १६७०) मे मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी के दिन उन्होने आचार्य रत्नऋषि जी से दीक्षा ग्रहण की थी। इस समय उनकी अवस्था तेरह वर्ष के लगभग थी । दीक्षा नाम उनका आनन्दऋषि जी रखा गया। दीक्षा लेने के बाद उन्होने व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, स्मृतिग्रथ, काव्यानुशासन और नैषधीय चरित आदि उच्च कोटि के काव्य ग्रन्थो को पढा तथा सस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, फारसी, राजस्थानी, उर्दू, अग्रेजी आदि विभिन्न

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