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मुक्ति-मन्दिर आचार्य मानतुग २२६
प्रमुख है।" मत्री की युक्तिसगत विनती को स्वीकार कर मानतुगराजसभा मे पहुचे और नवको धर्मलाभ देकर उचित स्थान पर बैठ गए । राजा हर्षदेव ने सम्मुखासीन आनार्य मानतुग से कहा-"मतश्रेष्ठ । मूर्य की आराधना से रोगोपशान्ति करने वाने और चदी की आराधना ने विच्छिन्न अगो को पुन प्राप्त करने वाले ये अतिगय-प्रभावी ब्राह्मण विद्वान् आपके मामने हैं, अब जाप भी अपनी मवविद्या का प्रभाव प्रदर्शित करे।"
आचार्य मानतुग योने-"भौतिक उपलब्धिया की प्राप्ति से निम्पृह मुनिजनो को लोफरजन मे अयं ही क्या है ' उनको प्रत्येक प्रवृत्ति का उद्देश्य मोक्षायं की मिद्धि है।'
आचार्य मानतुग की बात नुनकर राजा हर्षदेव गम्भीर हो गए। उनके आदेश से राजमेवको ने लोहायला के ४४ निगढ बन्ध में जापादमस्तक मानतुग को वाधफर घोर तिमिस्राछन्न अन्तर्गह में वद कर दिया।' ___ आचार्य मानतग चामत्कारिक विद्याओ का प्रदर्शन करना नहीं चाहते थे। जैन धर्म की दृष्टि ने विद्याओं का प्रदर्शन अविहित भी माना गया है । पर जैन शासन की प्रभावना का प्रश्न प्रमुग बन गया था । आचार्य मानतुग जिनम्तुति में लीन हो गए । भक्तिग्न में परिपूर्ण ४४ श्लोक रचे । प्रति नोक के नाथ अयोमयी शृयला की मघन कडिया और ताले टूटने गए। इसम्तोत्र का प्रारम्भ भक्तामर शब्द मे हुआ अत इनकी प्रनिद्धि भक्तामरनाम में है। मदिरमार्गी परम्परा में इस स्तोत्र के ४८ पद्य है।
आचार्य मानतुग द्वारा रचित प्रस्तुत भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव देखकर राजा हर्षदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा-"मैं धन्य ह, मेरा देश धन्य है और मेरा आज का दिवम धन्य है । आप जैसे त्यागी सतगुरुपो के दर्शन का शुभलाम मुझे प्राप्त हुआ है "आचार्य मानतुग के पावन उपदेश में जैन शामन की उन्नति के लिए भी अनेक कार्य किये और म्वय ने भी जैन धर्म स्वीकार किया।
आचार्य मानतुग के सर्वोपद्रव निर्वासि भक्तामर महास्तोत्र का प्रभाव अब भी जन समाज पर छाया हुआ है। सहलो व्यक्ति उसे कठस्थ करते है और स्वाध्याय करते हैं । अनेक टीकाओ का निर्माण भी इस स्तोत्र पर हुआ जो आज भी उपलब्ध है। प्रात -साय शुभाशय से इस स्तोत्र का पाठ करने पर उपसग दूर होते है। ___ अठाहर मनाक्षर का भयहर स्तोत्र भी आचार्य मानतुग का ही है । यह स्तोत्र चामत्कारिक और विपत्ति के क्षणो मे धैर्य प्रदान करने वाला है।
जिनशासन मे मानतुग धर्म के महान् उद्योतक आचार्य हुए। उन्होने अपने शिष्यो को अनेक प्रकार से बोध देकर योग्य बनाया। गुणाकर नामक शिष्य को अपने पद पर स्थापित कर वे इगिनी अनशन के साथ स्वर्ग को प्राप्त हुए।
हर्पदेव का राज्यामिक वि० स० ६६४ मे माना गया है। अत आचार्य मानतुग