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१७. विशद विचारक आचार्य विजयवल्लभ
मन्दिरमार्गी परम्परा के प्रभावक आचार्यों में विजयवल्लभ सूरि का नाम विश्रुत है । वे गम्भीर विचारक थे एव समन्वय वृत्ति के पोषक थे । उनके प्रवचन का मुख्य प्रतिपाद्य था, "मेरी आत्मा चाहती है- साम्प्रदायिकता से दूर रहकर जैन समाज श्री महावीर स्वामी के झडे के नीचे एकत्रित होकर महावीर की जय वोले 'इस दिशा मे उन्होंने समय-समय पर स्तुत्यात्मक प्रयत्न भी किये। विजयवल्लभ सूरि का जन्म वी० नि० २३६७ ( वि० १९२७) मे वडीदा (गुजरात ) मे हुआ | उनके पिताश्री का नाम दीपचन्दभाई व माता का नाम इच्छाबाई था। बचपन मे उन्हे छगन नाम से पुकारते थे । माता-पिता के धार्मिक सस्कारो का उन पर प्रभाव हुआ । ससार से विरक्त होकर वे वी० नि० २४१४ (वि० १९४४ ) मे रामनपुर मे श्रीमद विजयानन्द मूरि के पास दीक्षित हुए भोर हविजय जी के शिष्य बने । उनका दीक्षा का नाम विजयवल्लभ था । उन्होने दीक्षा लेने के बाद आगमो का गम्भीर अध्ययन किया ।
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आचार्य पद पर आरढ होकर विजयवल्लभ ही नही वे जनवल्लभ भी वन गए। उनकी प्रवचन शैली सरस, सरल व आकर्षक थी । जनता जनार्दन को जैन सस्कारो मे मस्कारित करने के लिए वे विशेष प्रयत्नशील थे । जैनो को प्रभावशाली वनाने के लिए स्वावलम्बन, सगठन, शिक्षा और जैन साहित्य का निर्माण — इन चारो बातो पर वे अधिक वल देते थे ।
वे समता के पुजारी थे । सम्पर्क मे आने वाले जैन, जैनेतर सभीसे समव्यवहार करते थे ।
बम्बई मे तेरापथ के प्रभावी आचार्य श्री तुलसी के साथ जैन एकता के समन्वय मे उनका विचार-विमर्श भी हुआ। उस चर्चा - प्रसग की जैन समाज मे सुन्दर प्रतिक्रिया रही। उसके थोडे समय बाद शीघ्र ही वम्बई मे वी० नि० २४८१ ( वि० २०११) में उनका स्वर्गवास हो गया ।