Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 404
________________ १८. योग-साधक आचार्य बुद्धिसागर योगियो की परम्परा मे बुद्धिमागर सूरि जी का नाम प्रख्यात है । वे जाति के पटेल थे और महान् योग साधक थे। पौने चार मन का उनका शरीर था तथा भरपूर मस्ती का उनका जीवन था। उनकी अगुलियो मे अट्ठारह चक्र थे। बुद्धिसागर जी वास्तव में ही बुद्धि के सागर थे। वे वी०नि० २४०० (वि० १९३०) मे जन्मे और वी० नि० २४२७ (वि० १६५७) मे उन्होने सुखसागर जी के पास जैन दीक्षा ग्रहण की। उनकी मयम-साधना उच्चकोटि की थी और रसनेन्द्रिय पर उनकी उत्कृष्ट विजय थी। वे उगविहारी और साहित्य-पाठन के तीन रसिक थे। उन्होने अपने जीवन मे लगभग २५०० पुस्तको का वाचन किया। एक 'अध्यात्मसागर' नामक पुस्तक को उन्होने सौ बार पढा था। साहित्य-सेवा भी उनकी अनुपम थी। एक सौ आठ कृतियो के सृजनहार वे अकेले महापुरुष थे। हजार पृष्ठो का विशालकाय महावीर ग्रन्थ लिखकर उन्होने अध्यात्म-साहित्य को गौरवमय उपहार भेंट किया। आनन्दघनजी के अध्यात्मपरक पद्यो के विवेचन का श्रेय भी उन्हे है। वे सस्कृत और गुजराती भाषा भी जानते थे। इन दोनो ही भापाओ मे उन्होने सरस स्तवनो की रचना की है। वे प्रमुख रूप से साहित्यकार नही, योग साधक थे। साहित्य उनकी योगसाधना की एक स्थूल निष्पत्ति थी। वे वी०नि० २४४० (वि० १९७०) मे आचार्य पद पर आरूढ हुए। ग्यारह वर्ष तक उन्होने अपने सघ का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। उनका वी० नि० २४५१ (वि० १९८१) मे स्वर्गवास हो गया।

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