Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 406
________________ २०. कमनीय कलाकार आचार्य कालगणी तेरापथ धर्म सघ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी थे। वे तेजस्वी एव वर्चस्वी आचार्य थे। जैन धर्म की प्रभावना मे उनका विविध रूपो मे योगदान है। आचार्य कालगणी का जन्म वी०नि० २४०३ (वि० १९३३) को छापरनिवासी कोठारी परिवार मे हुआ। छापर वर्तमान मे चुरु जिले के अन्तर्गत है। श्री कालूगणी जी मूलचन्द्र जी के इकलौते कुलदीप थे। उनकी माता जी का नाम छोगा जी था। छोगा जी निर्भय और धर्मनिष्ठ महिला थी। कालुगणी जब तीन दिन के थे छोगाजी को भयकर दैत्याकार काली छाया अपनी ओर बढती हुई दिखाई दी। एक हाथ से उन्होने पुत्र की रक्षा की तथा दूसरे हाथ से उस डरावनी कायाकृति को पछाडकर सिंहनी की तरह निर्भयता का परिचय दिया था। ___ मातृगुणो का सहज सक्रमण मतान मे होता ही है। छोगा जी के गुणो का विकास कालगणी के व्यक्तित्व में हुआ। शिशु-अवस्था में ही उनके जीवन में धार्मिक संस्कारो की नीव गहरी हो गयी। ___माता छोगा जी के साथ वे ग्यारह वर्ष की उम्र मे वी०नि० २४१४ (वि० १९४४) मे आचार्य मघवागणी से दीक्षित हुए। मघवागणी तेरापथ धर्म सघ के पचम आचार्य थे। प्रकृति से वे अत्यन्त कोमल थे। उनकी सन्निधि में रहकर कालगणी ने साधना-शिक्षा के क्षेत्र मे वहमुखी विकास किया । तेरापथ धर्म सघ के सप्तम आचार्य डालगणी के वाद वी०नि० २४३६ (वि० १९६६) मे वे आचार्य पद पर आसीन हुए। दीक्षा-जीवन से आचार्य पद पर आरूढ होने तक का वाईस वर्ष का काल उनके लिए व्यक्तित्व-निर्माण का सर्वोत्तम था। इस प्रलम्बमान अवधि मे शिक्षा-साधना के साथ अनेक अनुभवो का सवल उन्हे प्राप्त हुआ। . तेरापथ धर्म सघ के छठे आचार्य श्री माणकगणी के स्वर्गवास के वाद कालूगणी को आचार्य पद पर आरूढ करने की अतरग चर्चाए चली। पर उम्र कम होने के कारण वैसा नही बन सका। यह भेद उस दिन खुला जव सप्तमाचार्य डालगणी ने एक दिन मगन मुनि (मनी) से कहा-"सघ ने मेरा नाम मेरी अनुमति के विना कैसे चुना? मै इस पद को नही स्वीकारता तो दूसरा नाम किसका सोचा

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