Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 411
________________ २२. शान्ति-सधाकर आचार्य विजयशान्ति भारतीय शामक गण का गस्तक जिन चरणो में श्रद्धा मे शुक गया, ये महान् प्रभावी आचार्य विजयन्ति मूरि जी थे। उनका जन्म वी० नि० २४१५ (वि० १९४५) में हुआ। धर्मविजय जी और तीर्थविजय जी उनके शिक्षक थे। तीर्थविजय जी से १६ वर्ग की अवस्था में दीक्षित होकर १६ वर्ष तक उन्होने विभिन्न प्रान्ती में धर्म प्रनारायं यादगाए की । पुस्तको के ये विद्वान् नही थे पर योगजन्य विद्या या बद्भुन नामलामि वन उन्हें प्राप्त था। ____ माउण्ट बार उन विशेष साधनान्यनी या। उनका वी०नि० २४४७ (वि० १९७७) में गवंपयम परापंण वहा हआ था। ___ उनको वी० नि० २८६० (वि० १६६०) में 'जीवदया-प्रतिपालक, योगलव्ध राजराजेश्वर' की उपाधि ने अन कृत किया गया। __ वीर वाटिका में उनको 'जगन गुम' का पद मिला। इसी वर्ष के मार्ग शीर्ष महीने में उन्होंने बाचार्य पद का दायित्व मभाला। उदयपुर में नेपाल राजवणीय ठेपुटेशन द्वारा 'नेपाल राजगुरु' सम्बोधन देकर अपने राज्य की भोर मे उनका सम्मान किया था। नेपाल के अतिरिक्त अन्य विदेशी लोग भी उनमे अत्यधिक प्रभावित थे। एक अग्रेज ने उनका पूर्णत शिप्यत्व स्वीकार कर लिया था। उनकी उपदेशामृत-वाणी में अनेक व्यक्तियों ने णगव और मास का परित्याग किया तथा मैकडो राजाओ और पगीग्दारो ने पशुवलि तक बन्द कर दी। जावू का मुरम्य-शान्त वातावरण उनके मन पो अधिक पमन्द आ गया था। वे विशेषत वही रहे और माटोली म्यान पर उनका स्वर्गवास हुना।

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