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आस्था-आलम्वन आचार्य अभयदेव २६६
निवेदन किया- "मनीपि मान्य । सिद्धांतो के समुचित अर्थ को ग्रहण करने मे सर्वथा योग्य समझकर ही मैंने आपसे इस महत्त्वपूर्ण कार्य की प्रार्थना की है । आगम पाठो की व्याखपा मे जहा भी आपको सन्देह हो उस समय मेरा स्मरण कर लेना । मैं सीमधर स्वामी मे पूछकर आपके प्रश्नो को समाहित करने का प्रयत्न करूगी ।"
आचार्य अभयदेव को शासन देवी के वचनों से सतोष मिला । आगम जैसे महान् कार्य मे तपोबल की शक्ति आवश्यक है। यह सोच नैरन्तरिक आचाम्ल तप (आयविल) के साथ उन्होंने टीका रचना का कार्य प्रारम्भ किया । एकनिष्ठा से वे अपने कार्य मे लगे रहे। उनकी सतत श्रमपरायणता नो भगो की टीकाओ के गरिमामय निर्माण मे सफल हुई ।
आत्मवल अनन्त होता है, पर शरीर की शक्ति सीमित होती है । नैरन्तरिक आचाम्ल तप जोर रात्रि जागरण से उन्हें कुष्ट रोग हो गया । विरोधी जनो मे जपवाद प्रसारित हुआ— कुष्ट रोग उत्सूल की प्ररूपणा का प्रतिफल है। शासन देवी रुष्ट होकर उन्हें दड दे रही है ।
लोकापवाद सुनकर आचार्य अभयदेव का विश्वास भी डोला । अन्तचिन्तन चला। रात्रि के समय आचार्य अभयदेव ने धरणेन्द्र का स्मरण किया । शासनहितैषी धरणेन्द्र ने निद्रालीन आचार्य अभयदेव के शरीर को जिह्वा से चाटकर उन्हे स्वस्य बना दिया ।
स्वप्नावस्था मे आचार्य अभयदेव को प्रतीत हुआ - विकराल काल महादेव ने मेरे शरीर को आकान्त कर लिया है। इस स्वप्न के आधार पर आचार्य अभयदेव ने सोचा- 'मेरा आयुष्य क्षीणप्राय है, अत अनशन कर लेना उचित है ।'
स्वप्नावस्था में आचार्य अभयदेव के सामने धरणेन्द्र पुन प्रकट होकर वोला-'मैंने ही आपके शरीर को चाटकर कुष्ट रोग को शान्त कर दिया है ।"
शासन - प्रभावना मे प्रतिक्षण जागरूक आचार्य अभयदेव ने कहा"देवराज | मुझे मृत्यु का भय नही है, पर मेरे रोग को निमित्त बनाकर पिशुनजनो के द्वारा प्रचारित धर्म-सघ का अपवाद दुसह्य हो गया था।"
धरणेन्द्र के निवेदन पर श्रावक संघ के साथ आचार्य अभयदेव स्तम्भन ग्राम मै गए । जयतिहु नामक बत्तीस श्लोको का स्तोत्र रचा। इस स्तोत्न- रचना से स्तम्भन ग्राम के निकट से ढिका नदी के तट पर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई थी। यह प्रतिमा आज भी खभात मे विद्यमान है ।
धर्मसंघ की गौरववृद्धिकारक इस घटना से जनापवाद मिट गया। लोग अभयदेव की प्रशसा करने लगे । धरणेन्द्र ने स्तोत्र की दो प्रभावक गाथाओ को लुप्त कर दिया ।