Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 396
________________ १२. विद्या-विभाकर आचार्य विजयानन्द आचार्य विजयानन्द सूरिको विद्यानन्द सूरिकहना अधिक उपयुक्त होगा। ज्ञान के क्षेत्र मे उन्होने अतिशय योग्यता प्राप्त की। वेद, वेदाग और भारतीय विभिन्न दर्शनो का अवगाहन करने से उनकी बुद्धि काफी परिष्कृत हो चुकी थी। वी०नि० २३६३ (वि० १८९३) मे वे जन्मे । बचपन में ही उनके मस्तक पर से पिता के प्यार का साया उठ गया । भाग्य से वालक को धार्मिक सस्कारो का बल मिला और वह स्थानकवासी सम्प्रदाय मे दीक्षित हो गया। मुनि बनने के बाद उनका धीरे-धीरे मन्दिरमार्गी सम्प्रदाय की ओर झुकाव होने लगा। एक दिन बुद्धि-विजय जी के पास वी० नि० २४०२ (वि० १९३२) मे उन्होने मन्दिरमार्गी दीक्षा स्वीकार कर ली। पहला नाम उनका आत्माराम था। दूसरा नाम आनन्द विजय हुआ। उनको वी० नि० २४१३ (वि० १९४३) मे जैनाचार्य पद से अलकृत किया। आचार्य बनने के बाद वे आनन्द विजय से विजयानन्द हो गए। विजयानन्द सूरि जी समर्थ आचार्य थे। ये ही वे आचार्य थे, जिन्होने समूचे भारत मे अध्यात्म का शखनाद फूका और विदेशो तक अपने शिष्य वीरचन्द राघव को प्रेषित कर आत्मज्ञान की पीयूष-स्रोतस्विनी प्रवाहित की। शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर राघव जी का वक्तव्य हुआ। वक्तव्य सुनकर विदेशी लोग जैन धर्म की वैज्ञानिकता पर मुग्ध हुए और उन्होंने पहली बार अनुभव किया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है । जैन धर्म-प्रचारार्थ यूरोपीय देशो मे कई सस्थाओ को स्थापित करने का श्रेय भी आचार्य विजयानन्द जी को है। __ पाश्चात्य देशो से निकट सम्पर्क साधने वाले वे प्रथम आचार्य थे। विदेशो में उन्हे बुलाने के लिए कई निमन्त्रण भी आए पर उनका जाना नही हुआ। ___ आचार्य विजयानन्द जी की स्मरणशक्ति बहुत तीव्र थी। एक दिन मे ३०० श्लोक वे कण्ठस्थ कर लेते थे। उनकी साहित्य-सेवा भी बेजोड थी। तत्त्व निर्णय प्रसाद, अज्ञान तिमिर भास्कर, शिकागो प्रश्नोत्तर, सम्यक्त्व शल्योद्धार, जैन प्रश्नोत्तर, नव तत्त्व सग्रह,

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