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१६२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आर्य रक्षित की धीर-गभीर मगलमयी गिरा को सुनकर राजपुरोहित परिवार प्रतिवुद्ध हुआ एव श्रमण धर्म मे दीक्षित हुआ। सोमदेव का दीक्षा सस्कार सापवादिक था। उन्होने छन, जनेऊ, कोपीन एव पादुका का अपवाद रखा। पिता सोमदेव को इन अपवादो से मुक्त कर जैन-विहित विधि मे आर्यरक्षित द्वारा स्थिर करने की घटना आगम के व्याख्यात्मक साहित्य मे युक्तिपूर्ण सदर्भ के साथ प्रस्तुत है।
- एक वार सोमदेव मुनि श्रमणो के साथ चल रहे थे। आर्य रक्षित के सकेतानुसार मार्गवर्ती वालको ने कहा-"छत्रधारी के अतिरिक्त सब मुनियो को वन्दन करते है।" सोमदेव मुनि ने इसे अपना अपमान समझा और छत्र धारण करना छोड दिया। इसी तरह कौपीन के अतिरिक्त अन्य उपकरण भी छोड दिये थे। सोमदेव मुनि पहले भिक्षा लेने भी नहीं जाते। आर्यरक्षित के निर्देशानुसार एक दिन मुनि मडली ने उन्हे भोजन के लिए निमन्त्रण नही दिया। सोमदेव मुनि कुपित हुए। पिता की परिचर्या के लिए आर्यरक्षित स्वय भिक्षाचरी करने के लिए प्रस्तुत हुए। ___ सोमदेव मुनि ने कहा-"पुन । आचार्य भिक्षाचरी करे और मै न करू, यह लोकव्यवहार की दृष्टि से उचित नहीं है अत स्वय ही इस क्रिया में मैं प्रवृत्त बनूगा।" सोमदेव मुनि भिक्षा के लिए चले । सम्पन्न श्रेष्ठी के घर पीछे के द्वार से उन्होने प्रवेश किया। कोई भी नवागन्तुक व्यक्ति प्रमुख द्वार से आता है । मुनि को चोर पथ से आते देख श्रेष्ठी कुपित हुआ। सोमदेव मुनि बुद्धि के धनी थे, वाक्पटु थे। उन्होने तत्काल कहा-"श्रेष्ठी । लक्ष्मी का आगमन उल्टे द्वार से ही होता है। मधुर वाणी मे वातावरण को बदल देने की क्षमता होती है। सोच-समझकर विवेकपूर्ण वोला गया एक वाक्य भी विष को अमृतमय बना देता है। सोमदेव के सुमधुर शब्द के प्रयोग से श्रेष्ठी के क्रोध का पारा उतर गया। वह मुनि पर प्रसन्न हुआ। भक्तिभाव से अपने घर मे ले गया और बत्तीस मोदको का दान दिया। धर्मस्थान मे आर्यरक्षित के मार्ग-दर्शन से शिष्य मडली मे उन मोदको का वितरण कर (दान देकर) महान् लाभ के भागी सोमदेव मुनि बने।
आर्यरक्षित का युगप्रधानत्व काल वी०नि० ५८४ (वि० ११४) से प्रारम्भ होता है। आर्यरक्षित का युग विचारो के सक्रमण का युग था। वह नई करवट ले रहा था । पुरातन परम्पराओ के प्रति जनमानस मे आस्थाए डगमगा रही थी।
नग्नो न स्यामह यूय मा वन्दध्व सपूर्वजा । स्वर्गोऽपि सोऽथ मा भूयाद् यो भावी भवदर्चनात् ।। १६८॥
प्रभा० चरित्र, पृ० १४ --मुझे तुम वन्दन भले न करो और तुम्हारी अर्चा से प्रापणीय स्वर्ग की उपलब्धि भी भले न हो, मैं नग्नत्व को स्वीकार नही करुगा।"-पूर्वधर आर्य रक्षित