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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
महाकवि वीर ने सं० १०७६ में समाप्त । र जंबूस्वामिचरित की निम्न गाथा में वीर निर्वाण काल और विक्रम काल के वर्षों का अन्तर ४७० वर्ष बतलाया है। यथा :
वरिसाण सय चउक्कं सत्तरि जुत्त जिणेद वीरस्स ।
णिव्वाणा उववण्णो विक्कमकालस्स उत्पत्ती ।। इसमे स्पष्ट है कि वीर निर्वाण काल से ६०५ वर्ष और ५ महीने बाद होने वाले शक राजा अथवा शक काल को विक्रम राजा या विक्रम काल कैसे कहा जा सकता है।
वीर निर्वाण सवत की प्रचलित मान्यता में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में परस्पर कोई मतभेद नही है। दोनो ही वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक शालिवाहन की उत्पत्ति मानते है। दूसरे विक्रम राजा शक नही, शकारि था-शत्र था। यह बात वामन शिवराम आप्टे (V. S. Apte) के प्रसिद्ध कोष में भी इसे specially applied to Salivahan जैसे शब्दो द्वारा शालिवाहन राजा तथा उसके सवत् (cra) का वाचक बतलाया है। इस कारण विक्रम राजा 'शक' नही, किन्तु शकों का शत्र था । ऐसी स्थिति में उसे शक बतलाना या 'शक' शब्द का अर्थ शक गजा न करके विक्रम राजा करना किमी भूल का परिणाम है।
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद केलियो और श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का उल्लेख करते हुए उनका काल ६८३ वर्ष बतलाया है। इस ६८३ वर्ष के काल मे से ७० वर्ष ७ महीने घटा देने पर ६०५ वर्ष ५ महीने का काल अगिप्ट रहता है। वही महावीर के निर्वाण दिवस मे शक काल की आदि-शक स० की प्रवत्ति तक का काल मध्यवर्ती काल है-महावीर के निर्वाण दिवस से ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शक सवत् का प्रारम्भ हा है और तलाया है कि छहसौ वर्ष पाच महीने के काल में शक काल को-शक सवत की वर्षादि संख्या कोजोड़ देने से महावीर के निर्वाण काल का परिमाण या जाता है :
'सब्ब काल समासो तेयासोदीए अहिय छस्सदमेतो (६८३) पुणो एत्थ सत्तमासाहिय सत्तहत्तरिवासेस (७७-७) अवणिदेसु पंचमासाहियपंचत्तरछस्सदवासाणि (६०५-५) हवंति, एसो वीरजिणिंदणिब्वाणगद दिवसादो जाव सगकालस्स प्रादि होदि तावदिय कालो। कुदो? एदम्हि काले सगणरिदकालस्स पक्खित्ते वड़ामाणजिणणिव्वुद कालागमणादो। -(धवला० पु० ६ पृ० १३१-२)
प्राचार्य वीरमेन ने धवला टीका में वीर निर्वाण सवत् को मालूम करने की विधि बतलाते हुए प्रमाण रूप से जो प्राचीन गाथा उद्धत की है वह इस प्रकार है :
पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया।
सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी॥ इस गाथा मे बतलाया है कि गक काल की मख्या के साथ यदि ६०५ वर्ष ५ महीने जोड़ दिये जावे तो वीर जिनेन्द्र के निर्वाणकाल की मंग्या आ जाती है। इस गाथा का पूर्वार्ध, वीर निर्वाण से शक काल (संवत्) की उत्पत्ति के समय को सूचित करता है। श्वेताम्बरो के तित्थोगाली पइन्नय की निम्न गाथा का पूर्वाध भी, वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीन वाद शक गजा का उत्पन्न होना बतलाता है।
पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया।
परिणिन्वुप्रस्सऽरहितो उप्पन्नो सगो राया ।। ६२३ इस गाथा में भी ६०५ वर्प ५ महीने बाद शक राजा का उत्पन्न होना लिखा है। इससे दोनो सम्प्रदायों में निर्वाण समय की एकरूपता पाई जाती है। इसका समर्थन विचार श्रेणि मे उद्धन श्लोक से भी होता है :
श्रीवीरनिवृतेर्वषः षड्भिः पंचोत्तरः शतैः ।
शाकसवत्सरस्येषा प्रवत्तिभरते ऽभवत ॥ ऊपर के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रचलित वीर निर्वाण सवत ठीक है। उसमें कोई गलती नहीं है। और वि० स० ४७० विक्रमादित्य की मृत्यु का सवत् है। मुनि कल्याण विजय आदि ने भी प्रचलित वीर निर्वाण संवत् को ही ठीक माना है।