Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ શ્રી જૈનધર્મ પ્રકાશ कि जब यह अपने परमोपकारी सदगुरुकी निंदा लिख चुकाहै तो मैं किस गिनतिमें हूं ? महाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंद मूरि (आत्मारामजी) महाराजकी बाबत जो कुछ कर्तृनें इसने करी हैं गुजरात, काठीयावाड, मारवाड, पंजाब और बंगालादि देशोंके श्रावक लोक प्रायः मर्प जानते हैं और अहमदावाद, जयपुर, लश्कर, आग्रा, कलकत्ता वगैरह टिकाने जो कुछ उपकार किया है वहांके लोक प्रायः जानतेही हैं अगर नहीं भी जानते हैं तो वोह करने वाला खुद आपतो जानताही है. इसीवास्ते जबसे श्रीमहाराज श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदमूरि आत्मारामजी महाराजने इसको अपने समुदायसे पृथक् करादया है तबसे इसके साथ कोइ प्रकारका व्यवहार नहीं रखा गयाहै. सखहै " जाना नहीं जिस गाम क्या लेना उसका नाम " अपने छंदे कोइ मरजीमें आवे सो करे उसको कौन रोक सकताहै ? बस शिरपर किसीका अंकुश न रहा जो दिलमें आया कर लिया अपने मतलवको सिद्ध करने वास्ते कहींका पाठ कहीं जोड दिया नीतिका वचन है कि अर्थी ? (मतलबी) पुरुष दोषको नहीं देखताहै-यतः न पश्यतिहि जात्यंधः । कामांधो नैव पश्यति ।। न पश्यति मदोन्मत्तो । दोषमर्थी ? न पश्यति ॥ १ ॥ तात्पर्य इस श्लोकका यह है कि-अंधा, कामी, मदोन्मत्त और मतलबी यह चार शखस दोषको नहीं देखते हैं. इसी तरह न्यायरस्न बडे बडे. पुरुपोंके नाम लेकर उनकी आडमे अपना जारी किया नया कानून प्राचीन सिद्ध करनेका धोखा दे रहाहै परंतु इस धोखेमें विना उनके रागी मतलबीयोंके और कोइभी नहीं आवेगा. खूब याद रखना कि विना कुल माधु और श्री For Private And Personal Use Only

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