Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મુનિઓને રેલમાં બેસવા સંબંધી લેખને પ્રત્યુત્તર, ર૧૧ पाठकलंद ! जरा ख्याल करना चाहिये कि जिसकी तारीफ साक्षात् तीर्थकर भगवान् ने समवसरणके बीच द्वादश पर्षदाके आगे करी उनकी वरावरी जिसमे सम्यक्त्वकी भी भजना है किसी कदरभी कर सकता है? नहीं कदापि नहीं. श्री उपदेश मालामें लिखा कि स्वच्छंदपने चलनेवाला और गच्छका छोडकर एकला रहनेवाला ऐसा जो साधु उसको धर्मकी प्राप्ति कहांसे होवे ? अपितु न होवे. एकला साधु क्या तप वगैरह कर सक्ता है ? अपितु नहीं कर सकता है. अथवा एकेला साधु अकार्यको परिहरनेमें कैसे समर्थ होवे ? कदापि न होवे. पाठ यह है इक्कस्स को धम्मो । सच्छंदमइ गइप्पयारस्स ॥ किंवा करेइ इको । परिहरिउं कहमकझंवा ॥ १.५६ ॥ तथा उपाध्यायजी श्री श्री १०८ श्री मद्यशोविजयजी महाराज कृत ३५० गाथाके स्तवनमेंभी लिखा है कि एकाकीने स्त्री रिपु श्वानतणो उपघात । भिक्षानी न विशुद्धि महाव्रतनो पण घात । एकाकी सच्छंदपणे नवि पामे धर्म । नवि पामे पृच्छादिक विण ते प्रवचन मर्म ॥ ७ ॥ इसका अर्थ जैमा श्री १०८ श्री पद्मविजयजी महाराजने लिखा है वैसाही यहां लिखा जाता है. ___अर्थ-जे एकाकी विहार करे तेने स्त्रीनो तथा रिपु के० शत्रुनो अने श्वान के० कुतरानो उपघात थाय तथा भिक्षा पण दोप सहित लिये तो तेने कोण निषेध करे गाटे भिक्षानी शुद्धि पण न रहे तथा महायतनो पण अनुकमे घात थाय ॥ गाथा ॥ दुह पमुसाण सावय इच्छीभिरुखाइ दोस दुल्ललिओ। For Private And Personal Use Only

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