Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir રરર શ્રી જૈનધર્મ પ્રકાશ उसीवक्त श्रीशांतिचंद्रजीको बुलाने वास्ते नौकरोंको भेजें. उन्होने जाकर श्रीशांतिचंद्रजीसे कहाकि आपको बादशाह बुलाताहै. उसवक्त श्रीशांतिचंद्रजीकी ऐसी अवस्था हुईहै. पैरोंमें सोज आजानेसे एक कदम मात्रभी चलनेको समर्थ नहीं है, टोपसीमे रहे प्रामुक पानीके साथ गिला किया कपडेका टुकडा छातिके ऊपर रखा हुआहै, और दो शिष्य वैयावञ्च करते हैं. उसीवक्त नौकरोंने जाकर पूर्वोक्त सर्व स्वरूप बादशाहके आगे सुना दिया तब बादशाहने पालखी भेजी, परंतु श्रीशांतिचंद्रजी एक काष्टकी वली मंगवाकर उस पर बैठ गये. काष्टकी वलीके दोनों पासे दो शिष्य लग गये, और गुरुजीको पूर्वोक्त रीति उठाकर ले चले. इस रीति आते हुए श्रीशांतिचंद्रजीको देखकर वादशाह विचारने लगाकि अहो ! गुरुओंके वचनके भक्त ! धन्यहै इनको जोकि अपने गुरुओंके वचनके बंधे हुए येह मेरे साथ आते हैं ! नहीं तो मेरे पासों इनको किसी चीजकी प्राप्ति नहीं है. अहो ! इन समोंकी कैसी क्षमा है ! ऐसे विचार कर वादशाहने श्रीशांतिचंद्रजीके सन्मुख होकर वाचकेंद्रके दोनों पैरोंको आंखोंसे देखे और वाचकेंद्रको कहाकि हेस्वामिन् ! आजसे लेकर आपने मेरे लिये अधिक मजल नहीं करनी किंतु धीरे धीरे पीछे आजाना ॥ - ख्याल करनेकी बातहैकि निज गुरुकी आज्ञाको शिरपर धारण करके कितनी तकलीफें उठाई ! और आखीरमें कितना बडा भारी धर्मको फायदा पहुचाया जग जाहिर बातहै. लिखा'नेकी कोइ आवश्यकता नहीं है. क्या ऐसे परम उपकारी महास्माकी वरावरी निजगुरु द्रोही न्यायरत्न कर सक्ता है ? कदापि नहीं. For Private And Personal Use Only

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