Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આ જૈનધર્મ પ્રકાશ २२० के यही लक्षण हैं? यदि न्यायरत्नको श्रीकालिकाचार्यजीका कार्य स्वीकार है तो न्यायरत्नको चाहियेकि जैसे श्रीकालिकाचार्यजीने निज दुश्चरितका आलोचन प्रतिक्रमण किया. तैसे आपभी न्यायरत्न करें, और आगेको ऐसे दुष्कृत से निवृत्त होजावें. अन्यथा न्यायरत्नके स्थान में स्वयमेव ही अन्यायरत्न पद स्वीकार करना पडेगा ? ? न्यायरत्नका लेख है कि- “ आचार्य हीर विजयजी सूरिने : अक्कबर बादशाहको धर्मकी तरक्की के लिये करामात बतलाइ वाचक वर्गको ख्याल करना चाहिये कि श्रीहीरविजयसूरिने करामात दिखलाइ तो उसका क्या फायदा हुआ प्रायः सर्व जैनीलोक जानते हैं और उसवातके बादशाही परवाने मौजूद हैं. कुल उसके राज्य में छै महिने तक कोइ जीवको मारने नहीं पाताथा. ऐसे उपकार के करनेवालेथे. तथापि वोह नंगे पांवही विहार करतेथे. क्या बादशाहको उनके वास्ते पीनस भी नहीं मिलतीथी ? या श्रीविजय मूरिको सवारी करनी नहीं आतीथी ? जोकि बादशाहके बुलाने से गंधार नगरसे चलकर आगरेको पहुंचे ? अफशोसहैकि अपनी मतिकल्पनाकी बातको सिद्ध करनेके वास्ते कैसे कैसे विपरीतवाक् प्रपंच बनाने पडते हैं ? देखो ! अपने अनुचित कार्यकी पुष्टिके वास्ते कैसा कलंक महात्माओं को भी दिया जाता है ? श्रीशांतिचंद्र उपाध्यायजीके बारेमें न्यायरत्नने कैसा न्याय छांटा है ? लिखा है कि-" शांतिचंद्रजी महाराज अकबर बादशाह के साथ लडाइमें क्यों गये ? तुमारे हिसाब से न जाना चहिये ? क्या वहां उनके साथ उनको गरम पानी और निर्दोष आहार मिलाथा ? " ख्याल रखना चाहिये कि इस पूर्वोक्त ब्यानसे लोकोंको यह धोखा देना चाहा है कि श्रीशांतिचंद्र For Private And Personal Use Only ܕܪ

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52