Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 36
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જનધર્મ પ્રકાશ. . अफशोस है ! न्यायरत्न विद्यासागरके न्याय और विद्यापर कि जिसके जोशमे आकर कुलका कुछ लिखमारा ! क्या पूर्वोक्त वृत्तांतसे महारानका रैलमे बैठना सिद्ध होसक्ता है ? कदापि नहीं. तो फिर शांतिविजयका रैलके बिहारकी बावतमें महाराज श्री आत्मारामजीका नाम लेना सिवाय उन महात्माओंको कलंक देना, इससे और भोले अज्ञानी जोवोंको अपने फंदमें फसानेके वास्ते धोखा देना, इससे और कुछ सिद्ध होसका है ? नहीं कुछ भी नहीं. वसतो शांतिविजयके लिखनेसे क्या होसक्ता है ? जो मरजीमें आवे सो गप्पाष्टक लिखपारे ! कोइ पूछनवाला शिरपर होवे, या परभवका डर होवे, जिनाज्ञाके विराधनेका खोफ होवे, तबही लिख नेमे यथार्थ लिखान लिखाजावं. यदि शोचाजावे तो साफ जाहिर होताहै कि श्री महाराजजी साहिबका रैलमें बैठना बताकर न्यायरत्न अपना रैलका विहार सिद्ध करना चाहता है, बिलकुल बिहुदा है. क्योंकी नतो महाराज साहिब श्री आत्मारामजी खुद रैलमें बैठेथे, और न उनको बैठना मंजूरथा. जेकर इस बातको वोह पसंद करते तो श्रावकोंपर नाराज कबी न होते, और श्री गणिजी महाराज के पासो प्रायश्चित्त मंगवाकर स्वीकार न करते. परंतु योहतो भवभीरु थे. श्री शांतिविजय समान न्यायरत्न विद्यासागर गुरुद्रोही नहीं थे !!! __तथा एक औरभी बात है कि महाराज श्री आत्मारामजी अनेक कष्ट सहन करके पंजाबसे गुजरात, और गुजरातसे पंजाब दो वक्त आये, और गये. जगजाहिर बात है. क्या महाराजको For Private And Personal Use Only

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