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શ્રી જનધર્મ પ્રકાશ. उन्मत्तका वेप बना लिया, और त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ आदि स्थानों में ऐसे प्रलाप करता हुआ फिरने लगा।
जेकर गर्दभिल्ल राना है तो इससे परे क्या? यदिवा रमणीक अंतेउर है तो इससे परे क्या ? यदिवा देश रमणिक है लो इससे परे क्या ? अथवा नगरी सुंदर है तो इससे परे क्या ? यदिवा लोक भले वेषवाले है तो इससे परे क्या ? जेकर मैं भिक्षाटन करता हूं तो इससे परे क्या? यदिया मैं शून्य घरमें सोता हूं तो इससे परे क्या ? इत्यादि असंबद्ध प्रलाप करते हुए आचा र्यको देखकर नगरके लोक कहने लगे कि अहहा ! राजाने यह काम योग्य नहीं करा ! अहो कष्टम् ! गुणोका निधान यह कालिकाचार्य अपनी वहिनके निमित्त अपने गच्छको छोडकर नगरोमें उन्मत्त (चावला) हुआ फिरता है ! _ गोपाल बाल ललना औरत आदि सर्व लोक के मुगर से ऐसी कठोर निंद्याको सुनकर मंत्रियोने राजाको समझाया कि हे देव ! ऐसा काम मत करो. इस साथीको छोडदो. तुमारा बड़ा भारी अवर्णवाद होताहै. मोहसे मोहित होकर जो प्राणी गुगी जनको अनर्थ करताहै सो प्राणी निश्चय अपने आपको अगों के समुद्रमें गेरताहै. पर्वोक्त मंत्रि वचनको सुनकर रोपमें आकर राजाने जवाब दियाकि-रे रे ? ऐसी शिक्षा जाकर अपने पापको दे. ओ ? ? यह सुनकर अंत्रि चुप कर गये.
किसी प्रकारसे इस बातको जानके कालिकाचार्य नगरीमेसे निकलगया, और क्रमझे शक कुलको जामिला इत्यादि ।
सदरहु पाठ नीचे मूजिव है ॥ एवं च भवियकमल पडिवोहण पराणं जाववोलंति कइवि
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