Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૧૪ શ્રી જૈનધર્મ પ્રકાશ साध्वीयां आगई. तिनमें एक सरस्वती नामा अत्यंत खूबसूरत श्री कालिकाचार्यकी बहिन साध्वीथी. स्थंडिल गई हुई उस साध्वीको उस नगरीके राजा गर्दभिल्लने देखी, देखतेही सार कामातुर होकर-हा सुगुरु ! हा भाइ ! हा प्रवचनके नाथ कालिका. चार्य ! चारित्ररूप धनके हरनेव ले इस अनार्य राजाके पासो मेरी रक्षा कर-ऐसे पुकार करतीहुई साध्वीको जोरावरी लेजाकर राजाने अपने अंतेउरमें स्थापन करदी. श्री कालिकाचार्य महाराजने यह बात जानके राजाको कहा कि हे महाराज ! उत्तम प्रमाणोंसे यत्नपूर्वक प्रमाणोंकी-दर्शनोंकी रक्षा होती है. जब वोही प्रमाण विसंस्थुल होजावे तो प्रमाणोंका विनाश होता है. राजन् ! तपोवन की रक्षा राजासे होती है. शास्त्रोंका कथन है कि-राजाशी भुनारूप छ।याका आश्रय लेकर साधु लोक सुखे सुखे निर्भय होकर अपने धर्म कार्यों को निरंतर करते हैं. इस वास्ते इसको विदा कर. अपने कुल कलंक मत पैदा कर कहा है कि जिस किसी पुरुषने परस्त्रीका हरण कियाहै, जिसका मन परस्त्रीमें असक्त है, वोह शीघ्रही जगत्में अपने आपको हलका करदेता है. संग्राममे उसकी जय नहीं होती है. अपन गोत्रको वोह कलंकित करदेता है, अपन चरित्रको मलिन करदेता है. उसने अपना मुभटपणा खो दिया. जगत्में अपजसका ढोल बजवा दिया. और अपने कुलपर श्याहीका कूचा फिरादिया-इसवास्ते हे महाराज ! जूठी काकके मांस की पेशाके समान ऐमा विरुद्ध काम करना तुझको उचित नहीं है. राजाने कामातुर होनेसे और विपरीत बुद्धि होने से सूरिमहाराजका किंचिन्मात्र भी नहीं माना. क्योंकि जगत्में अंधा For Private And Personal Use Only

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