Book Title: Jain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૧૦ શ્રી જનધર્મ પ્રકાશ. पूर्वोक्त श्री आवश्यक मूत्रके पाठसे सुज्ञ वाचकटंदको साफ साफ जाहिर होजावेगा कि न्यायरत्नका निजकार्यकी सिद्धिक वास्ते कितना बडा भारी मूत्रविरुद्ध विचार हो रहा है ? ओर वोह अनजान लोकोंको किस कदर अपनी मनः कल्पित रेलकी जालमें फसानेकी चालाकी दिखाता है !! न्यायरत्न-कालिकाचार्य धर्मके लिये गर्दीमान्ल राजाके सामने लडाईमें सामिल हुवे क्या तुमारे हिसाबसे मुनियोंको लडाइ मे सामिल होना लाजिम था ? इस प्रकारकी धमकी देकर अपना रैलमें बैठना सिद्ध करना चाहता है परंतु कालिकाचार्यने जैसे लाचार होकर यह काम किया और इस कामका आखीरी नती जा क्या निकला जिसका कोई ब्यान नहीं दिया. सिर्फ लोकोंको धाखेमें डालने के लिये लिखमारा कि कालिकाचार्यने लडाइ करी क्या कालिकाचार्य के लिये धर्मकृत्यकी बरावरी न्यायरत्न कर सकताहै ? हरगिज नहीं वराबरी तो क्या करनी है मगर लक्ष क्या कोटी हिस्सेकी भी तुलना नहीं कर सकताहै. कालिकाचार्य तो युग प्रधान, जिनशासनके प्रभावक, सर्व संघमें मान्य, परम पूज्य होगए जिसकी प्रवृत्त करी चौथकी संवत्मरी अद्यापि जिन शासनमें मानी जाती है. तथा जिनके बारेमें इंद्रके पूछनेसे महा विदेह क्षेत्रमें श्रीसीमंधर स्वामीने अपने मुखसे फरमाया कि हे इंद्र ! इस समय भी भरतक्षेत्रमें जैसे मैनें सूक्ष्म निगोदका स्वरूप कथन कराहै ऐसे ही कथन करने वाला कालिकाचार्य है. सोपाठ यहहै तं सोऊण मुरिंदो । विम्हिय उप्पु.ल्ललोयणो एवं ॥ सिरि कयकयं जलिउडो । जंपइ परमेण विणएण ॥ भयवं भारहवासे। इय मुहूम निगोयवण्णणं जाउं ॥ कि मुणइ सोवि संपइ । निरति एक दकमाकाले ॥ तो भणइ किणो । मुरवइ कालयमूरि निगोय वरकाणं ॥ भरहांम मुणइ सज्जवि । जह वरकायं मए, तुम्ह ।। For Private And Personal Use Only

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