________________ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् जगत् में पदार्थ मात्र सत् है, क्यों कि जो सत् है उसी का ज्ञान होता हैं / जो असत् है उसका ज्ञान कभी नहीं होता / जैसे कि आकाशकुसुम, गर्दभशृंग / इतर लोग सत् की व्याख्या'अर्थक्रियाकारी सत्' ऐसी करते हैं, अर्थात् कुछ न कुछ कार्य करनेवाला हो यह सत् है / किन्तु ध्वंस-विनाश यह भी अपना 'ज्ञान' कार्य कराता है / किन्तु यह सत् कैसे कहलायेगा? जैन दर्शन 'सत्' की व्याख्या 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्' ऐसी करते है / इस व्याख्या में दीपक जो क्षण क्षण नष्ट व उत्पन्न होता है, यह भी आएगा और आकाश जो सदा नित्य है, वह भी आएगा, क्यों कि दीपक के मूलभूत अणु ध्रुव (नित्य) है व उसमें से नयी नयी ज्योत उत्पन्न होती है और पूर्व पूर्व ज्योत नष्ट होती नष्ट ज्योत के तामस है / पुद्गल वातावरण में फैल जाकर कायम रहते है, तो दीपक भी उत्पाद व्यय-ध्रौव्य युक्त बना / वैसे ही महाआकाश ध्रुव है और घडा फूट जाने से घटाकाश नष्ट हुआ और गृहाकाश उत्पन्न हुआ / उदाहरणार्थ, -सोने का कंगन तोडकर हार बनाया वहाँ कंगन नष्ट हुआ, हार उत्पन्न हुआ और सोना कायम रहा / सत् में ही ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते है, किन्तु आकाशकुसुम जैसे असत् में नहीं / जीव मनुष्यरूप में मरता यानी नष्ट होता है और देव रूप में उत्पन्न होता है लेकिन जीवरूप में ध्रुव रहता है / कहो,