Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 319
________________ भगवान के योग, चारित्र, आदि विशिष्ट कारणो के एकत्रित हो जाने से गणधर देवो को श्रुत-ज्ञानावरण कर्म का अपूर्व क्षयोपशम (अर्थात् अमुक प्रकार का नाश) होता है / फलतः विश्व के तत्त्वों का प्रकाश होने से, वे बारह अंगरूप (द्वादशांगी) आगम की रचना करते हैं / सर्वज्ञ प्रभु उन्हें प्रमाणित करते हैं / वें बारह अंग ये हैं :- (1) आचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समवायांग, (5) भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति), (6) ज्ञाताधर्मकथा, (7) उपासक दशांग, (8) अंतकृत् दशांग (9) अनुत्तरौपपातिक दशांग, (10) प्रश्न-व्याकरण (11) विपाकसूत्र व (12) दृष्टिवाद / 12 वे अंग 'दृष्टिवाद' में 14 'पूर्व' नामक महाशास्त्रो का समावेश है / वीर प्रभु के निर्वाण के बाद करीब 1 हजार वर्ष पश्चात् इस 12 वां 'दृष्टिवाद' नामक आगम का विच्छेद हो गया, अर्थात् वह विस्मृत हो गया / अतः अब ग्यारह अंग शेष रहे / ये 11 अंग + 'औपपातिक' आदि 12 उपांग + बृहत्कल्प आदि 6 छेद सूत्र + 'आवश्यक' , 'दशवैकालिक,' 'उत्तराध्ययन' 'ओघनियुक्ति' ये 4 मूलसूत्र + 'नंदि' और 'अनुयोगद्वार' 2 + 10 'प्रकीर्णक' (पयन्ना) शास्त्र (गच्छाचार पयन्ना आदि) = 45 आगम आज उपलब्ध हैं / इनमें 'अंग' व 'आवश्यक' गणधर-रचित हैं / शेष पूर्वधर-रचित हैं | पंचांगी आगम :दस आगम सूत्रो पर श्रुतकेवली चौद पूर्वधर आचार्य भगवान श्री 203148

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