Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 331
________________ किसी अमुक सामान्य या अमुक विशेष रूप से ही नैगमनय ज्ञान होगा / (2) संग्रह नय :- यह वस्तु को केवल सामान्य रूप से जानता है, जैसेकि 'मोह क्यों करते हो? अंत में सब कुछ नाशवंत है / ' यहां समग्र को एक 'नश्वर-सामान्य' के रूप जान लिया है, यह संग्रहनय ज्ञान है / 'जीव कहें या अजीव, सब कुछ सत् है / ' 'क्या तिजोरी, क्या बंगला, सब कुछ नश्वर हैं / ' 'वट कहो या पीपल, सब वन हैं / ये सब उदाहरण संग्रह-नय के है / ' संग्रहनय विशेष को नगण्य गिनता है / इसके मत में सामान्य ही वस्तु है / (3) व्यवहारनय :- यह लोक - व्यवहार के अनुसार वस्तु को केवल विशेषरूप से जानता है / इसकी मान्यता है कि मात्र सामान्यरूप से कोई सत् वस्तु है ही नहीं / जो व्यवहार में है, उपयोग में आता है वह विशेष ही सत् है / जगत में वट, पीपल, बबूल आदि में से कोई भी न हो, क्या ऐसे वृक्ष जैसे कोइ पदार्थ है? नहीं / जो है सो वट है, या पीपल है, या बबूल आदि है / अतः विशेष ही वस्तु है / (4) ऋजुसूत्र नय :- इससे भी अधिक गहराई में जाकर यह ऋजुसूत्र नय 'ऋजु' अर्थात् सरल 'सूत्र' से वस्तु का ज्ञान करता है | जो वस्तु वर्तमान हो और अपनी ही हो, उसे ही यह वस्तुरूप में स्वीकार करता है / जैसे कि गुम हो गए अथवा लूटे गए धन 30 32680

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