Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 330
________________ उसकी दृष्टि अपेक्षा की और होती है / भिन्न - भिन्न अपेक्षाओं से भिन्न-भिन्न नय ज्ञान होते हैं / स्थूल अपेक्षा से प्रारंभ का नैगम नयज्ञान होता है / सूक्ष्म अपेक्षा से उत्तर के नयों का ज्ञान होता है / प्रत्येक पदार्थ में सामान्य अंश और विशेष अंश होते है / जैसेकि वस्त्र अन्य वस्त्रों के समान वस्त्र सामान्य है / किन्तु एक अंगरखे के रूप में वस्त्र विशेष है / यह भी बाद में दूसरे अंगरखों की पंक्ति में अंगरखाँ सामान्य है / परन्तु सफेद होने के कारण दूसरे रंगीन अंगरखों की अपेक्षा से अंगरखा विशेष है / इस प्रकार प्रत्येक वस्तु सामान्य रूप भी है, व विशेष रूप भी है / इसी सफेद अंगरखे को विशेष रूप से देखा / किन्तु यही सूती होने के कारण अन्य रंगीन अंगरखों के साथ सामान्य रूप है / __सूती के रूप में रेशमी अंगरखां की अपेक्षा यह अंगरखा विशेष है / इसमें भी दूसरे रेशमी अंगरखों की दृष्टि से वह सामान्य है / किन्तु विशेष सिलाई के रूप में विशेष है / इस प्रकार पदार्थ में कितने ही सामान्य व विशेष है / उस उस अपेक्षा से पदार्थ अनेक सामान्य रूप है, और अनेक विशेषरूप है / इस कार्य को नैगम नय करता है / नैगम = नैक गम / नै = अनेक, गम = बोध, अनेक बोध अर्थात् अनेक सामान्य और अनेक विशेष रुपों से ज्ञान यह नैगम नय द्वारा ज्ञान है / इतना अवश्य है कि एक समय में - 3250

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