Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 340
________________ जैसे कि आत्मा जीव के रूप से ही नित्य है, किन्तु मनुष्य के रूप से नित्य नही, कायम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा से तो उसे अस्थिर अनित्य ही मानना होगा / इस प्रकार अलग अलग अपेक्षा से अलग अलग धर्म एक ही वस्तु में रह सकते हैं, उनमें परस्पर विरुद्ध दिखाई पडनेवाले धर्म भी हो सकते हैं / उदाहरणार्थ पानी से आधा भरा हुआ गिलास भरा भी है और खाली भी है / तीसरी ऊँगली छोटी भी है और बडी भी है / अतः एकान्तरूपेण एक ही धर्म का आग्रह रखना मिथ्या है / तात्पर्य यह है कि वस्तु 'नित्य' है, 'एक' है आदि कथन निरपेक्ष रूप से नहीं, अथवा सभी अपेक्षाओं से नहीं, किन्तु 'कथंचित्' अर्थात् किसी एक अपेक्षा से / इस अनेकांतवाद सिद्धांत को 'कथंचिद्वाद', 'स्याद्वाद', 'सापेक्षवाद' भी कहते हैं / 'स्याद्' अर्थात् कथंचित् अर्थात् अमुक अपेक्षा से उस धर्म या परिस्थिति का प्रतिपादन स्याद्वाद है / समझना-देखना अथवा बोलना यह एकान्त दृष्टि से नहीं किन्तु अनेकांत दृष्टि से प्रमाणिक होता है / अतः अनेकान्तवादी का सिद्धांत प्रमाणिक है / जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, स्याद्वादी है, सापेक्षता के सिद्धांत को मानने वाला है / कुछ समय पूर्व हुए वैज्ञानिक आइन्सटाइन को भी पर्याप्त शोध के पश्चात् अंत में Principle of Relativity (सापेक्षता के सिद्धांत) का निर्णय व प्रतिपादन करना पड़ा था / 3350

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