Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 318
________________ होनेवाला बोध / (5) 'सम्यक् श्रुत' :- समकितधारी का श्रुतबोध (6) 'मिथ्याश्रुत' :- मिथ्यात्वी का शास्त्र-बोध / (7) 'सादि श्रुत' :भरत आदि क्षेत्र में प्रारंभ होनेवाला श्रुत / (8) 'अनादि श्रुत' :महाविदेह में अनादि से प्रवाहित श्रुत / (9) 'सपर्यवसित श्रुत' :नाश होनेवाला श्रुतज्ञान / (10) 'अपर्यवसित श्रुत' :- अविनाशी श्रुतधारा / (11) 'गमिक श्रुत' :- समान 'गम' अर्थात् आलावा (फकरा) वाला श्रुत / (12) 'अगमिक श्रुत' :- इससे विपरीत / (13) 'अंगप्रविष्ट श्रुत' :- 'अंग' यानी आचारांग आदि द्वादशांग आगम में अन्तर्गत श्रुत / (14) 'अनंगप्रविष्ट' :- अंग अंतर्गत नहीं ऐसा अंग = बाह्य श्रुत, अंग से बाहर का श्रुत जैसे कि 'आवश्यक' 'दशवैकालिक' आदि / 'सम्यक श्रुत' में जिनागम तथा जैनशास्त्रो का समावेश है | यह जैन शास्र मूल रूपेण श्री वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरदेव की वाणी से प्रगट हुए है, अतः सम्यक् है / अब श्रुत के अन्तर्गत आगमो और शास्त्रो पर विचार करें / 45 आगमः द्वादशांगी: 14 पूर्व आदि : तीर्थंकर भगवान संसारवास को छोडकर निष्कलंक चारित्र तथा बाह्य-आभ्यंतर तप की साधना करके वीतराग सर्वज्ञ बनते हैं / तत्पश्चात् वे गणधर शिष्यों को 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा, धुवेइ वा' यह 'त्रिपदी' (तीनपद) प्रदान करते हैं / इन्हें सुनकर उनके पूर्व जन्म की विशिष्ट साधना उत्पत्ति, आदि चार बुद्धि का वैशद्य, तीर्थंकर 23138

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