________________ के उसी प्रकार के दूसरे रूप के कर्मपुद्गल में संक्रमण की प्रक्रिया | संक्रमण का अर्थ है वर्तमान में बद्ध होते हुए कर्म-पुद्गल में पूर्व के संगृहीत कुछ सजातीय कर्मो का, मिश्रित होकर, उसी रूप में परिणत हो जाना / उदाहरण के रूप में, इस समय मानों शुभ भाव के कारण शाता-वेदनीय कर्म का बंध हो रहा है / उसमें पूर्व संचित कुछेक अशाता-वेदनीय कर्म मिलकर (मिश्रित होकर) शाता रूप बन जाते हैं / इसे अशाता-वेदनीय का 'संक्रमण' हुआ कहा जाएगा / इसके विपरीत अशुभ भाव के कारण बंधते हुए अशाता-वेदनीय कर्म में कुछेक पूर्व के शाता-वेदनीय कर्मो का संक्रमण होने से वे शाता कर्म अशाता कर्मरूप बन जाते हैं / यह शाता वेदनीय कर्म का 'संक्रमण' हुआ कहा जाएगा / (3-4) उद्वर्तनाकरण-अपर्वतनाकरण - कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि होना 'उद्वर्तना' और कमी होना 'अपवर्तना' है / यदि जीव शुभ भाव में प्रवृत्त है तो संग्रह में विद्यमान शुभ-कर्म के रस को बढाता है और अशुभ के रस को घटा देता है / यदि अशुभ भाव में प्रवृत्त है तो इस से विपरीत होता है / (5) उपशमनाकरण - विशिष्ट प्रकार के शुभ भावोल्लास से मोहनीय-कर्म के उदय को अन्तर्मुहूर्त तक सर्वथा रोक देना, शांत करना, यह सर्वथा उदयनिरोध से उपशमना हुई कहलाती हैं / उस उदयनिरोध के अन्तर्मुहूर्त काल में जिन जिन कर्म की स्थिति का परिपाक 1138