Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 310
________________ तब वहां सर्वविरति का गुणस्थानक आता है / यहाँ कर्मोपार्जक 3 रा दोष 'प्रमाद' खडा है, इसलिए वह 6 वां प्रमत्त - गुणस्थानक कहलाता है / जब वह 'प्रमाद' त्याग दे, तब वहाँ 7 वां अप्रमत्त - गुणस्थानक प्राप्त होता है / वहाँ .. सामर्थ्ययोग का अपूर्व वीर्य प्रगट कर कषायो का अधिक अधिक शमन या क्षय करता चले तब 'अपूर्वकरण' 'अनिवृत्तिकरण' और 'सूक्ष्मसंपराय' नामक 8-9-10 वें गुणस्थानक पर चढता जाता है / जब 10 वे गुणस्थानक पर चढता है, वह यदि कषाय का 'उपशम' करता हुआ चढता है तब वहाँ 10 वें में सूक्ष्म संपराय (यानी कषाय) अंत में उपशांत हो जाने से अब वीतराग हो 11 वाँ उपशान्तमोह - गुणस्थानक प्राप्त करना है / किन्तु वहाँ क्षण के बाद उपशांत किया गया राग (कषाय) मोहनीय कर्म उदय में आ जाने से जीव नीचे गिरता हैं, अर्थात् पुनः 10-9-8-7... आदि गुणस्थानकों में पतन होता चलता है / यदि 8 वें गुण-स्थानक से आगे कषायमोह का उत्तरोत्तर संपूर्ण क्षय करता आगे बढ़ता है तब 10 वें गुणस्थानक के अन्त में सर्वथा कषाय-मोह को क्षीण कर वीतराग बनकर के वह 'क्षीणमोह' नामक 12 वें गुणस्थानक पर चढता है | वहाँ अंत में शेष तीन घाती कर्मो (ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अंतराय) का भी क्षय कर देता है / अब जीव सयोगी केवली नाम क 13 वें गुणस्थानक पर आरुढ होता है / अलबता यहाँ तक में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद व कषाय ये चार कर्म-बन्धक कारण नष्ट हो गये 3058

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