Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 314
________________ ‘परोक्ष ज्ञान' के दो प्रकार हैं-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान / 'प्रत्यक्षज्ञान' के तीन प्रकार है-अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान / इस तरह प्रमाणज्ञान के पांच प्रकार हुए, - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान / (1) मतिज्ञान :- यह इन्द्रियों और मन से होता है | चक्षुइन्द्रियों से रूपी द्रव्य और रूप (वर्ण) संख्या, आकृति, आदि का ज्ञान होता है / जैसे कि हमने देखा यह घडा है, लाल है, एक है, गोल है / ' इत्यादि चाक्षुष मतिज्ञान है / घ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान होता है, जैसेकि 'यह सुगंध या दुर्गंध कहाँ से आई?' रसनेन्द्रिय से रस का पता चलता है, - 'इस में मिठास कैसी है?' स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श का बोध होता है, जैसे कि 'यह कोमल है?' श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द का ज्ञान होता है, - 'वाह! कैसा मधुर शब्द है / ' मन से चिन्तन, स्मरण, अनुमान तर्क आदि ज्ञान किया जाता है, जैसे कि 'कल जाऊंगा' 'वह मार्ग में मिला था,' 'धुंआँ दिखाई दे रहा है, अतः अग्नि जल रही होगी' इत्यादि-चिंतन-स्मरण-अनुमान (कल्पना) होती है / यह सब मतिज्ञान है / मतिज्ञान में चार कक्षाएँ हैं :- अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा / पहले यह भान होता है कि 'कुछ है' यह 'अवग्रह' है / बाद मे होता है कि 'यह क्या होगा? यह नहीं, वह संभव हैं' ईहा कहते हैं / इसके पश्चात् होता है, यह वही है, ऐसा निर्णय यह 'अपाय' 23098

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