Book Title: Jain Dharm Ka Parichay
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 311
________________ है, इसलिए 13 वें गुणस्थानक में जीव वीतराग सर्वज्ञ बना है, किन्तु अब भी विहार, आहार-ग्रहण, उपदेश-उच्चारण आदि मन-वचन-काया की प्रवृत्ति रूप 'योग' खडा है / (योग यह कर्मबन्ध का 5 वां कारण है / ) अब 13 वें के अंत में योगों का सर्वथा निरोध कर दे, तब 14 वां अयोगी केवली-गुणस्थानक प्राप्त होता है / यहाँ तुरन्त शेष 4 अघाती कर्मो का पांच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण-काल जितने काल में, संपूर्ण क्षय कर देता है, तब मोक्ष-अवस्था प्राप्त होती है / ___ मोक्ष में अब वेदनीय कर्म न रहने से आत्मा का अनंत अव्याबाध, सहज सुख प्रगट होता है | साथ के अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्यादि लब्धि भी है / मोक्ष में मोहनीय कर्म भी न होने से वीतरागता है, आयुष्य-कर्म न होने से अजर-अमर अवस्था है / नाम कर्म न होने से अरूपी अवस्था है, गोत्र कर्म न होने से अगुरुलघु अवस्था है / वहां सिद्ध के 8 गुण प्रगट होते है / अपनी आत्मा की ऐसी अनंत ज्ञान-सुखमय निरंजन निराकारनिर्विकार अवस्था प्रगट करने के लिए जैन धर्म की आराधना करने योग्य है / 2 3068

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