________________ निश्चित था, वे कर्माणु शुभ अध्यवसाय के बल पर पूर्व-उत्तर स्थिति में चले जाते हैं; अर्थात् उन्हें वैसी स्थिति वाले कर देते हैं / अतः यहाँ 'उदय रुका', उपशमना हुई ऐसा कहा जाता है / (6) उदीरणाकरण - इसमें विलम्ब से उदय में आनेवाले कुछ कर्म-पुद्गलों को शुभभाव-बल से शीघ्र उदय की और आकृष्ट किया जाता है, यह 'उदीरणा' है / (7) निधत्तिकरण - इसके द्वारा कर्म-पुद्गलों को ऐसा रूप दे दिया जाता हैं कि इन पर उद्वर्तना-अपवर्तना के अतिरिक्त और किसी करण का प्रभाव नहीं पड़ता है / अर्थात् वे दूसरे करणों के अयोग्य बन जाते हैं / यह 'निधत्ति' है / (8) निकाचना करण - इसमें उन कर्म-पुद्गलों को समस्त करणों के अयोग्य बना दिया जाता है | इस निकाचित कर्मो पर संक्रमण आदि कोई भी करण लागू नहीं होता / अतः इन्हें 'निकाचित' कर्म कहते हैं / तीव्र शुभ भाव से पुण्य-कर्म और तीव्र अशुभ भाव से पाप-कर्म निकाचित बन जाते हैं / उन का विपाक भोग लेने से ही जीव उन से छूटकारा पाता है / अनिकाचित कर्मो का तो, विपाक भोगे बिना भी संक्रमण, अपवर्तना आदि द्वारा छूटकारा हो सकता है / ___ इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि कर्म बद्ध होने के बाद में सभी कर्म उसी अवस्था में ही रहते हों, ऐसी बात नहीं हैं / परन्तु कुछ कर्मो के दूसरे कर्मो में संक्रमण, स्थिति-रस में उद्वर्तनादि, उदीरणा.... SA 11488