________________ है कर्मो की 'उदीरणा' / कर्म जब तक उदय में नहीं आते तब तक आत्मा की सिलिक में पड़े रहते हैं, यह कर्म की सत्ता कही जाती है / इस प्रकार 'बंध' के विचार में कर्मो के बन्ध-उदय-उदीरणा एवं सत्ता इन चार की विचारणा आती है / अलबत्त कर्मों का संक्रमण-उद्वर्तता-अपवर्तता-उपशमत्ता-निधत्ति-निकाचना आदि भी होते हैं / (यह आगे का विषय है / ) __ आत्मा के 1 ले गुणस्थानक 'मिथ्यात्व' से लेकर 14 वे 'अयोगी केवली' गुणस्थिति तक के चौदह गुणस्थानक होते हैं / चौथे गुणस्थानक में सम्यक्त्व होता है / बाद में 5 वे में देशविरति, 6 वे में प्रमत्त सर्व विरति, 7 वे में अप्रमत्त, इत्यादि 14 गुणस्थानक होते हैं / इस प्रत्येक गुणस्थानक में तद् योग्य कर्मो का प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध एवं प्रदेशबन्ध होते रहते हैं, एवं कर्मो का उदयउदीरणा-सत्ता और संक्रमकरण, उद्वर्तनाकरण आदि भी होते रहते हैं / इनका परिचय आगे देंगे / ___ पहिले यह समझ लें कि मूल में जीव के आठ प्रकार के सहज गुण हैं / अनंत-ज्ञान, अनंत दर्शन आदि और इनको प्रगट होने देने में रोकनेवाले आठ प्रकार के कर्मो हैं / इन से आत्मा में विकृतियाँ खड़ी होती हैं / यह निम्नलिखित कोष्टक पर से ज्ञात हो जाएगा / इस में जीव मानों एक सूर्य है, इसके मूल 8 गुण ये प्रकाश है, उन 1098