________________ 22 परिसह : बाईस परिषह-परिषह अर्थात् समता से सहनीय (1) रत्नत्रयी की निश्चलता, या (2) आत्मसत्त्व के विकास, तथा (3) कर्म-निर्जरा के लिए एवं (4) असंयम की इच्छा किए बिना, जो समता-समाधि से सहन किए जाए वे है परीषह / 1. भूख, 2. प्यास, 3. शीत, 4. उष्णता, 5. दंश (मच्छर आदि), 6. गड्ढे आदि से युक्त (टेढा-मेढा) ठहरने का स्थान, 7. आक्रोशअनिष्ट वचन, 8. लात आदि का प्रहार, 9. रोग, 10. दर्भ की शय्या, 11. शरीर पर मल, 12. अल्प व जीर्ण वस्त्र-इन बारह को कर्मक्षय में सहायक समझकर तथा सत्त्व का वर्धक मानकर दीन दुःखी न बनते हुए सहर्ष सहन करना / इसी प्रकार 13. घर-घर भिक्षाचर्या में लज्जा, अभिमान, दीनता का अनुभव न करना, 14. आहारादि की प्राप्ति न होने पर अविकृत चित्त रखकर तपोवृद्धि मानना, 15. यकायक स्त्री का दर्शन हो जाए तो राग-पूर्वक्रीडास्मरण आदि न करते हुए निर्विकार शुद्ध ज्ञानादिमय आत्मस्वरुप का विचार करना, 16. निषद्या- (i) स्मशानादि में कायोत्सर्ग कर निर्भीक रहना, (ii) स्त्रीपशु-नपुंसक रहित स्थान का सेवन करना, 17. अरति (उद्वेग) होने पर धर्म-धैर्य धारण करना, 'मुझे अनमोल संयम-संपत्ति प्राप्त हुई हैं, तब और क्या कमी है कि मैं अरति करुं?' ऐसा विचार कर अरति रोकनी, 18. आहारादि से सत्कार तथा 19. वंदन-प्रशंसादि से अगवानी प्राप्त होने पर राग, गर्व या आसक्ति नहीं करनी, 20. अच्छी 80 1008