Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 13
________________ * प्राक्कथन* प्रस्तुत कृति की रचना जन सामान्य को जैन धर्म दर्शन का बोध कराने के उद्देश्य से की गई है। इस पुस्तक में जैन धर्म दर्शन को निम्न छः खण्डों में विभाजित किया गया है। 1. जैन इतिहास 2. तत्त्व मीमांसा 3. आचार मीमांसा 4. कर्म मीमांसा 5. धार्मिक क्रियाओं से संबंधित सूत्र एवं उनके अर्थ और 6. धार्मिक महापुरुषों की जीवन कथाएँ। जैन धर्म दर्शन को सामान्य जन को परिचित कराने करवाने के उद्देश्य से प्रस्तुत पाठ्यक्रम की योजना बनाई गई। यह पाठ्यक्रम छः सत्रों (सेमेस्टर) में विभाजित किया गया है, इसमें जैन इतिहास, जैन आचार, जैन तत्त्वज्ञान. जैन कर्म, सत्रार्थ आदि का समावेश किया गया है। मुलतः यह पाठ्यक्रम परिचयात्मक ही है, अतः इसमें विवादात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि को न अपनाकर मात्र विवरणात्मक दृष्टि को ही प्रमुखता दी गई है। ये सभी विवरण प्रामाणिक मूल ग्रंथों पर आधारित है। लेखक एवं संकलक की परंपरा एवं परिचय मुख्यतः श्वेताम्बर परंपरा से होने के कारण उन सन्दर्भो की प्रमुखता होना स्वाभाविक है। फिर भी यथासम्भव विवादों से बचने का प्रयत्न किया गया है। पंचम सत्र में सर्वप्रथम जैनागम साहित्य का प्रत्येक आगमों का संक्षिप्त विवेचन किया है। तत्त्वों के स्थान पर जैन साधना में ध्यान, योग और छ: लेश्याओं का निरूपन किया है। आचार के क्षेत्र में श्रावक के 12 व्रतों की चर्चा की गई है। कर्म मीमांसा में गोत्र कर्म, अन्तरार्य कर्म तथा कर्म की विविध अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन है। सूत्रार्थ में वंदितु सूत्र तथा स्थानकवासी परंपरा के बारह व्रत अतिचार सहित सूत्रार्थों का स्पष्टीकरण किया गया है। अंत में पर्युषण पर्व, दीपावली, ज्ञान पंचमी तथा कार्तिक पूर्णिमा आदि पर्यों पर प्रकाश डाला गया षष्टम सत्र में सर्व प्रथम भ. महावीरस्वामी के पाट परम्परा के विशिष्ट आचार्यों का विवेचन किया गया है। तत्वों में सम्यग्दर्शन का स्वरूप तथा प्रमाण मीमांसा में जैन दर्शन में ज्ञान का स्वरूप, प्रमाणवाद, नयवाद, निक्षेपवाद, अनेकांतवाद एवं स्याद्वाद का विस्तृत वर्णन है। तत् पश्चात् जैनाचार में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ तथा समाधिमरण का उल्लेख किया गया है। कर्म के स्थान पर इस बार आत्मिक विकास का स्वरूप चौदह गुणस्थान का विवेचन किया गया है। सूत्रार्थ में प्रतिक्रमण के कुछ सूत्र एवं दशवैकालिक सूत्र के प्रथम दो अध्ययनों का भावार्थ के साथ स्पष्टीकरण किया गया है। अंत: में मौन एकादशी, होली, अक्षय तृतीया एवं रक्षा बन्धन पर्वो पर प्रकाश डाला गया है। ___इस प्रकार प्रस्तुत कृत में पूर्व प्रथम भाग में जैन धर्म दर्शन संबंधी जो जानकारियाँ थी, उनका अग्रिम विकास करते हुए नवीन विषयों को समझाया गया है। फिर भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें जो विकासोन्मुख क्रम अपनाया गया है वह निश्चित ही जन सामान्य को जैन धर्म के क्षेत्र में अग्रिम जानकारी देने में रुचिकर भी बना रहेगा। प्रथम खण्ड का प्रकाशन सचित्र रुप से जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार यह खण्ड की जन साधारण के लिए एक आकर्षक बनेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। कृति प्रणयन में डॉ. निर्मला बरडिया ने जो श्रम और आदिनाथ जैन ट्रस्ट के आयोजकों का जो सहयोग रहा है वह निश्चित ही सराहनीय है। आदिनाथ जैन ट्रस्ट जैन विद्या के विकास के लिए जो कार्य कर रहा है, और उसमें जन सामान्य जो रुचि ले रहे हैं, वह निश्चित ही अनुमोदनीय है। मैं इस पाठ्यक्रम की भूरि भूरि अनुमोदना करता हूँ डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर Jain Education international For Personal VIII wale Use Only www.jainelibrary.org

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