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जैन परम्परा में सकाममरण, समाधिमरण, पंडितमरण, संथारा, संलेखना आदि निष्काम मृत्युवरण के ही पर्यायवाची नाम हैं। आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आपत्ति, अकाल, अतिवृद्धावस्था एवं असाध्य रोगों में शरीर त्याग करने को संलेखना कहते है अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना व्रत है। समाधिमरण के भेद
जैन आगम ग्रन्थों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार पर समाधिमरण के दो भेद किये गये हैं। 1. सागारी संथारा 2. सामान्य या यावज्जीवन संथारा।
1. सागारी संथारा :- जब अकस्मात् कोई ऐसी विपत्ति उपस्थित हो, जिसमें से जीवित बच निकलना सम्भव प्रतीत न हो, उपसर्ग, आपत्ति, भयंकर पीड़ा या मरणादिक कष्ट, जैसे आग में गिर जाना, जल में डूबने की स्थिति हो जाना, अथवा हिंसक पशु या किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फंस जाना, जहाँ सदाचार से पतित होने की सम्भावना हो, ऐसे संकटपूर्ण अवसरों पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है उसे सागारी-संथारा कहते हैं। यह संथारा मृत्यु पर्यन्त के लिए नहीं होता। जिस परिस्थिति विशेष के कारण वह संथारा किया गया है वह परिस्थिति यदि शांत और समाप्त हो जाती है, आपत्ति और उपसर्ग दूर हो जाते है तो उस संथारे की मर्यादा पूर्ण होने से वह पार लिया जाता है। राजगृह नगरी के निवासी सुदर्शन सेठ ने नगर के बाहर गुणशीलक उद्यान में भगवान
महावीर स्वामी का पदार्पण सुना किन्तु मार्ग में अर्जुनमाली का आंतक छाया हुआ था, फिर भी दृढ़ निश्चयी वीर सुदर्शन सेठ मृत्यु से न डरकर प्रभु के दर्शनार्थ चले गये। अर्जुनमाली को साक्षात् मृत्यु के रूप में सामने आता देखकर सुदर्शन सेठ वहीं एक स्थान पर स्थिर होकर भगवान महावीर स्वामी को वन्दन करते हुए आलोचनादि से आत्म शुद्धि करते हैं और आपत्ति पर्यन्त चारों आहार तथा अठारह पापस्थान एवं शरीरादि को भी त्याग करते हैं।
उसमें वे इस प्रकार आगार (छूट) रखते हैं, यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मैं आहारादि ग्रहण करूँगा और यदि उपसर्ग से मुक्त नहीं होऊँ तो मुझे जीवन भर आहार आदि का प्रत्याख्यान है। जब सुदर्शन सेठ का उपसर्ग टल गया तब उन्होंने सागारी संथारा पार लिया।
प्रतिदिन रात्रि में सोते समय भी निम्न दोहे के द्वारा सागारी संथारा लिया जा सकता है।