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(भाव जिनकी वन्दना)
तस्स धम्मस्स केवलि-पत्रत्तस्सअब्भुट्ठिओमि आराहणाए, विरओमि विराहणाए। तिविहेण पडिक्वंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ||43||
शब्दार्थ तस्स - उस।
विराहणाए - विराधना से। धम्मस्स - धर्म की, श्रावक धर्म की। तिविहेण - तीन प्रकार से, मन, वचन, काया से। केवलि - केवलि भगवान के द्वारा। पडिक्कंतो - निवृत्त होकर प्रतिक्रमण करके। पन्नत्तस्स - कहे हुए।
वंदामि - मैं वंदन करता हूँ। अब्भुट्ठिओ - तैयार, तत्पर, सावधान। जिणे - जिनेश्वरों को। मि - मैं।
चउव्वीसं - चौवीस। आराहणाए - आराधना के लिये। विरओमि - हटा हूँ, विरत हुआ हूँ।
भावार्थ : मैं केवलि भगवान् के कहे हुए श्रावक धर्म की आराधना के लिये तैयार हुआ हूँ और उसकी विराधना से विरत हुआ (हटा) हूँ। मैं सब प्रकार के अतिचारों का मन, वचन, काया से प्रतिक्रमण करके पापों से निवृत्त होकर श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हूँ।।43||
(तीन लोक के शाश्वत तथा अशाश्वत स्थापना जिनको वन्दन)
जावंति चेइआइं, उड्ढे अ अहे अतिरिअ लोए | सव्वाइं ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ।।44||
शब्दार्थ जांवति-चेइआइं - जितने जिन बिंब। सव्वाइं ताई - उन सबको। उड्ढे - ऊर्ध्वलोक में।
वंदे - मैं वन्दन करता हूँ। अ . - और।
इह
- यहाँ। अहे - अधोलोक में।
संतो
- रहता हुआ। - तथा।
तत्थ - वहाँ। तिरिअ-लोए - तिर्यगलोक में।
संताई - रहे हुओं को। - एवं।
अ
अ
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