Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 108
________________ दशवैकालिक सूत्र प्रथम अध्याय दुमपुप्फिया (दुम पुषिपका) मूल - धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ||1|| अन्वयार्थ - धम्मो - दुर्गति में गिरते हुए जीव को बचाने वाला श्रुत-चारित्र रूप धर्म। मंगलमुक्किटुं - उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा संजमो तवो - वह धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप है। देवा वि - देवता भी । तं- उसको | नमंति- नमस्कार करते हैं। जस्स- जिसका | धम्मे- धर्म में | सया- सदा । मणो - मन लगा रहता है। भावार्थ - अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म संसार के सब मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है। ऐसे धर्म में जिसका मन सदा रमण करता रहता है, उसको चार जाति के भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवता भी नमस्कार करते हैं। मूल - जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ||2|| अन्वयार्थ - जहा - जैसे | दुमस्स - वृक्ष के | पुप्फेसु - फूलों पर | भमरो - भँवरा । रसं - रस को। आवियइ - मर्यादा से पीता है। य पुप्फ - और फूल को | न किलामेइ - पीड़ा उत्पन्न नहीं करता है। य- और | सो- वह। अप्पयं - अपने आपको | पीणेई - तृप्त कर लेता है। भावार्थ - जैसे भँवरा फूलों पर प्राकृतिक मर्यादा से रसपान करके अपना पोषण कर लेता है और फूलों को पीड़ा उत्पन्न नहीं होने देता है। इसी प्रकार साधु अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है, जिससे कि उसका भी अच्छी तरह निर्वाह हो जाय और दूसरों के लिए भी अपने आहार में से थोड़ा सा दे देना कष्टदायक न हो। मूल - एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाण - भत्तेसणा रया ।।3।। अन्वयार्थ - एमे ए - ऐसे ये । समणा - श्रमण तपस्वी । मुत्ता जे - बहिरंग और अंतरंग परिग्रह से जो मुक्त हैं। लोए - लोक में। साहुणो - साधु । संति - हैं। पुप्फेसु - फूलों पर। विहंगमा व - भँवरे के समान वे। दाण भत्तेसणा - दाता द्वारा दिये गये निर्दोष प्रासुक आहार पानी की एषणा में। रया - रत रहते हैं। naghiva

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