Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 123
________________ रक्षा बन्धन जम्बू स्वामी के अन्तर मानस में एक प्रश्न कचोट रहा था कि तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान और केवलदर्शन को पाने के पश्चात् एक स्थान पर अवस्थित क्यों नहीं होते? वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण कर उपदेश क्यों देते हैं, इसका क्या रहस्य है? जम्बूस्वामी ने गणधर सुधर्मास्वामी के सामने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की। गणधर सुधर्मास्वामी ने जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा - वत्स। तीर्थंकर सभी जीवों की रक्षा के लिए, जन-जन के कल्याण के लिए यह पावन उपदेश प्रदान करते हैं। "सव्व जग जीव-रक्खण-दयट्ठयाए भगवया पावयणं सुकमियं।" भगवान महावीर स्वामी ही नहीं सभी तीर्थंकरों की वाणी का प्रवाह उनके करूणा द्रवित अन्त:करण से समस्त जगत् के जीवों की रक्षा के लिए ही प्रवाहित होता है। . रक्षा का अर्थ है प्रेम, दया, सहयोग और सहानुभूति। रक्षा जीवन में मधुरता का संचार करती है, भाईचारे की भव्य भावना को उजागर करती है। रक्षा शब्द में जीवन की शक्ति है, प्राण है, आत्मा का निज गुण है, जो पाप, ताप और संताप से मुक्त करता हैं। रक्षा के भीतर मानवीय सुख-दुख की सहानुभूति, संवेदना और उत्सर्ग की भावना छिपी है। दूसरों के दुखों से द्रवित होकर उनकी रक्षा के लिए अपने सुखों का बलिदान करना और कष्टों को स्वीकारना यह रक्षा के साथ जुड़ा है। यह मानव मन की पवित्रता का पावन प्रतीक हैं। लगता है कि जैसे नक्षत्र-मण्डल सूर्य और चन्द्र के चारों ओर परिक्रमा करते हैं, वैसे ही जितने भी धर्म और दर्शन है, रक्षा को केन्द्र-बिन्दु बनाकर ही आगे बढते रहे हैं। रक्षा-बन्धन का पर्व कब प्रारंभ हुआ इस सम्बन्ध में जैन साहित्य में प्रचलित कथा इस प्रकार है - महापद्म नामक चक्रवती सम्राट् थे। नमुचि नामक उनका मंत्री था। नमुचि ने कुछ ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे चक्रवर्ती सम्राट उस पर प्रसन्न हो गये। नमुचि के अन्तर मानस में जैन श्रमणों के प्रति स्वाभाविक रूप से घृणा थी, क्योंकि जैन श्रमणों ने अकाट्य तर्कों के द्वारा उसे वादविवाद में पराजित कर दिया था, वह इसका बदला लेना चाहता था। सुनहरा अवसर देखकर नमुचि मंत्री ने सात दिन के लिए राजा महापदम से साम्राज्य का वर प्राप्त कर लिया। सत्ता के नशे में उसने अन्याय, अत्याचार करना प्रारंभ किया। उसने जैन साधुओं से कहा कि “हमारे राज्य में रहने का कर दो और कर न देने पर प्राण दण्ड की घोषणा की और सातवें दिन तक छह खण्ड का विराट् राज्य छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए भी उसने कहा।" जब यह सूचना सुमेरू पर्वत पर ध्यानस्थ एक जंघाचारण मुनि के द्वारा विष्णु मुनि को मिली जो वहाँ पर ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे, वे शीघ्र ही अपने विध्याबल से वहाँ पर पहुँचे और नमुचि मंत्री से कहा कि जैन साधु का जीवन सम्राट से भी बढकर हैं, चक्रवर्ती सम्राट भी उनके चरणों में झुकता है। साधु किसी भी शासन में गुलाम बनकर नहीं रहता, वह तो धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर के शासन में रहता है, तुम साधुओं को न सताओं यही तुम्हारे DOR

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