Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 122
________________ सहसा उनकी दृष्टि प्रभु पर पड़ी। पूर्वभव के संस्कार जगे । जाति-स्मरण ज्ञान हो गया और प्रभु के साथ अपने आठ भवों के संबन्ध को जान लिया। ओह ! श्रमण परिग्रह की लेशमात्र इच्छा नहीं करते फिर मणि, स्वर्ण, हाथी, घोडा, मुकट की तो बात ही क्या है ? तुरन्त प्रभु के समीप पहुँच निवेदन किया। प्रभो! 18 कोडाकोडी सागरोपम पर्यन्त विच्छिन्न प्रासुक आहार की विधि का सम्यक् प्रदर्शन करा कर भव्यात्माओं का निस्तरण कीजिए। उसी समय ताजा शुद्ध आये हुए 108 घड़े इक्षुरस को आग्रह एवं श्रद्धापूर्वक प्रभु को हस्तपात्रों में बहराकर परमानंदित हुए, एवं सुपात्रदान के प्रभाव से मोक्षाधिकारी बने। "अरिहंत ने दानज दीजे तीजे भव कारज सीजे रे।" अरिहंत को दान (सुपात्रदान) दाता निश्चित तीसरे भव में मोक्ष जाता है। देवों द्वारा पंचदिव्य प्रकट हुए। युवराज को अक्षय सुख प्राप्त होने के कारण यह दिन अक्षय तृतीया कहलाया । इस तरह भ. ऋषभदेव का प्रथम पारणा इक्षुरस द्वारा हुआ। शेष 23 तीर्थंकरों का प्रथम पारणा खीर द्वारा हुआ। प्रतिवर्ष अक्षयतृतीया हमारे हृदय में युग निर्माता भ. ऋषभदेव की याद जगाने आती है, हमारे पुरूषहीन जीवन में कर्म, त्याग और सेवा की मधुर भावना भरने आती है। महापुरूषों के जीवन में आई आपत्ति भी जगत के लिए संपत्ति का कारण बनी है। प्रभु के उस तप के ही अनुसरण स्वरूप आज श्री संघ में बडे पैमाने पर वर्षीतप की आराधना होती है। शारीरिक क्षमता की न्यूनता के कारण एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन बैयासना) का वर्षीतप का स्वरूप स्वीकृत हो गया। विधिपूर्वक दो वर्षतप करने पर 400 उपवास की सम्पूर्ण आराधना होती है। इस तप का समापन उल्लासपूर्ण वातावरण में होता है। 108

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