Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 113
________________ अन्वयार्थ-तीसे- उस | संजयाए- संयमशीला राजीमती के। सो सुभासियं- वे पतितोत्थान वाले सुभाषित। वयणं - वचन | सोच्चा - सुनकर | अंकुसेण - अंकुश से | जहा नागो - जैसे हाथी वश में हो जाता है, वैसे ही स्थनेमि भी। धम्मे - चारित्र धर्म में। संपडिवाइओ - पुन: स्थिर हो गये। भावार्थ - उस संयमशीला राजीमती महासती के इन हृदयस्पर्शी, सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि का मन अंकुश के द्वारा वश हुए मत्त हाथी के समान, संयम धर्म में पुनः स्थिर हो गये। मूल - एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटुंति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ||11|| - त्ति बेमि ।। अन्वयार्थ - संबुद्धा पंडिया - सम्यक् बोध वाले पंडित। पवियक्खणा - विचक्षण साधक | एवं - इसी प्रकार | करेंति - अपनी आत्मा को स्थिर करते हैं। भोगेसु - काम-भोगों से | विणियटृति - निवृत्त होते हैं। जहा - जैसे | से - वह । पुरिसुत्तमो - पुरुषोत्तम रथनेमि | त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता भावार्थ - सम्यक् बोध वाले विचक्षण पुरूष वे हैं जो मोहभाव के उदय से चंचल बनी चित्तवृत्तियों को ज्ञानांकुश से स्थिर कर लेते हैं। जैसे पुरुषोत्तम रथनेमि ने राजीमती के सुभाषित वचन सुनकर भोगों से पुनः अपने मन को मोड़ लिया था ऐसा मैं कहता हूँ। || द्वितीय अध्ययन समाप्त ।। ॥*

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