Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 103
________________ 5. अड्ढाइज्जेसु-सूत्र अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु । जावंत के वि साहू, रयहरण- गुच्छ - पडिग्गह-धारा।।1।। पंचमहव्वय-धारा, अट्ठारस सहस्स-सीलांग- धारा । अक्खुयायार-चरित्ता, ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि।।2।। शब्दार्थ अड्ढाइज्जेसु दीव - समुद्देसु जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और अर्धपुष्कर - द्वीप में, ढाई द्वीप समुद्र में । पण्णरससु - पन्द्रह | कम्मभूमिसु - कर्मभूमियाँ में। जावंत के वि साहू - जो कोई भी साधु । रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह- धारा- राजेहरण, गुच्छक और (काष्ठ) पात्र को धारण करने वाले । रयहरण-रज को दूर करने वाला उपकरण विशेष । गुच्छ-पातरे की झोली पर ढँकने का एक प्रकार का ऊन का वस्त्र । पडिग्गह-पातरा, पात्र । धारा धारण करनेवाले । पंचमहव्वय-धारा - पाँच महाव्रतों का धारण करवनेवाले । अट्ठारस - सहस्स-सीलांग धारा अठारह हजार शील के अङ्गों को धारण करनेवाले । अक्खुयायार चरित्ता - अक्षत, आचार और चारित्र आदि (भाव-लिङ्ग) को धारण करनेवाले । ते - उन। सव्वे - सबको । सिरसा - सिर से, मणसा - मन से काया से I - मत्थएण वंदामि - मस्तक से वन्दन करता हूँ। भावार्थ : ढाई द्वीप में आयी हुई पन्द्रह कर्मभूमियों में जो साधु रजोहरण, गुच्छ और (काष्ठ) पात्र (आदि द्रव्यलिङ्ग) तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शीलाङ्ग, अक्षत आचार और चारित्र आदि (भाव-लिङ्ग) के धारण करनेवाले हों, उन सबको काया तथा मन से वन्दन करता हूँ।। $89€ WEEEEEEE

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