Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 90
________________ रूप उत्तर गुण द्वारा जल्दी नाश कर देता है ||37|| जहाविसकुड्गर्य (इस विषय में अन्य दृष्टाँत) जहा विसं कुट्ठ-गयं, मंत-मूल-विसारया। विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं ||38।। ចាំទ្ធ कुट्ठगयं एवं अट्ठविहं कम्मं, राग-दोस-समज्जि। आलोअंतो अ निंदतो खिप्पं हणइ सुसावओ ||39|| शब्दार्थ जहा - जैसे। निव्विसं - विष रहित। विसं - विष को। - वैसे ही। - पेट में गये हुए। अट्ठविहं - आठ प्रकार के। मंत-मूल-विसारया - मंत्र और जड़ी- कम्म - कर्म को। बूटी के जानकार। राग-दोस-समज्जिअं - राग-द्वेष से उपार्जित। विज्जा - वैद्य। आलोअंतो - आलोचना करता हुआ। हणंति - मंत्रों द्वारा। - और। मंतेहिं - मंत्रों द्वारा निंदंतो - निन्दा करता हुआ। - उससे। खिप्पं - शीघ्र। - वह शरीर। हणइ - नष्ट करता है। हवइ - होता है। सुसावओ - सुश्रावक। भावार्थ : जिस प्रकार गारुडिक मंत्र और जड़ी-बूटी मूल को जानने वाला अनुभवी कुशल वैद्य रोगी के शरीर में व्याप्त स्थावर और जंगम विष को मंत्रादि द्वारा दूर कर देता है और उस रोगी का शरीर विष रहित हो जाता है। उसी प्रकार राग-द्वेष से बाँधे हुए ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों को सुश्रावक गुरु के पास आलोचना करके तथा अपनी आत्मा की साक्षी से निन्दा करते हुए शीघ्र क्षय कर डालते हैं ||38-39।। अ तो. Jain Education International For Pe a le Use Only

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