Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 96
________________ मखामियाजावातिर्यच हँ वैसे ही यदि मैंने भी किसी का कुछ अपराध किया हो तो वह मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है किसी के साथ शत्रुता नहीं है ||49|| तिर्यच विकलेन्द्रिय (प्रतिक्रमण की समाप्ति पर अंत्य मंगल) एवमहं आलोइअ, निंदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्म। तिविहेण पडिक्कं तो, वंदामि जिणे चउव्वीसं।।50|| शब्दार्थ एवं - इस प्रकार। आलोइअ - आलोचना करके। अहं - मैं। निदिअ - निन्दा करके। गरहिअ - गर्दा करके। पडिक्वंतो - निवृत्ति होता हुआ, प्रतिक्रमण करता हुआ। दुगंछिअं - दुगंछा करके, घृणा करके, वंदामि - वन्दना करता हूँ। जुगुप्सा करके। सम्मं - अच्छी तरह। जिणे - जिनेश्वरों को। तिविहेण - तीन प्रकार से, मन, चउव्वीसं - चौवीस। वचन और काया से। भावार्थ : इस तरह मैंने अच्छी तरह पापों (अतिचारों) की आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा की है, तथा मन, वचन, काया से प्रतिक्रमण करके अब मैं अन्त में फिर से चौबीस तीर्थंकरों को वन्दना करता हूँ ||5011 - . Jain Education International B For Pe condivale Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126