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पर्वत की शिला पर पाटीपगमन) संथारा
दूसरे मुनियों से सेवा नहीं लेता। यह मरण चारों प्रकार के आहार त्याग करने वालों को ही होता है।
c) पादोपगमन :- अपने पैरों से संघ से निकल कर योग्य स्थान में जाकर स्थित अवस्था में चारों प्रकार के आहार के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्यु पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर होकर देहत्याग करना पादोपगमण मरण है। इस मरण को स्वीकार करनेवाला साधक न स्वयं शरीर की सेवा करता है, न दूसरों से सेवा करवाता है। वह अपने शरीर के प्रति पूर्णतः ममत्व का त्याग करते हुए इस प्रकार भेद - विज्ञान करता है।
'देह मरण से मै नही मरता, अजरामर है मेरा पद !
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देह विनाशी मै अविनाशी, देह जाए तो क्यों उदासी ?'
समाधिमरण में साधक देह को समभावपूर्वक त्याग करता है। देह त्याग के समय वह जरा भी विचलित नहीं होता है और न ही उसे मृत्यु का भय सताता है। ऐसा तभी सम्भव है जब साधक अपनी पर्याय (शरीर) से ममत्व न रखे। शरीर तो साधना में साधन मात्र है । साध्य तो आत्मा का विकास है।
समाधिमरण में विवेक की प्रधानता रहती है। इसमें मृत्यु की इच्छा नहीं रहती है। इसमें साधक राग-द्वेष के दल-दल से सर्वथा मुक्त - विमुक्त रहे, साथ ही सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से सम्यक्त्व रहे । सब प्रकार की आधि व्याधि से ध्यान हटाकर चित्त को एकाग्र करे और शांति के साथ धर्म- ध्यान, तप आराधना में लग जाये, जिससे कषाय कृष या क्षीण होते जायेंगे और वैराग्यमय भावनाओं में वृद्धि होने लगेगी।
संलेखना या संथारा के पांच अतिचार
उपासकदशांग सूत्र में संलेखना के निम्न पांच अतिचार का उल्लेख है - इहलोकासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीविआससंप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे । प्रतिक्रमण सूत्र में भी संलेखना के पांच अतिचार बताए गये है।
इब्लोगाससप्पसग
1. इहलोक - आशंसा - प्रयोग :- ऐहिक सुखों की कामना करना । धर्म के प्रभाव से मुझे इहलोक सम्बन्धी राजऋद्धि आदि की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा करना, ,जैसे मैं मरकर राजा या समृद्धिशाली बनूं।
2. परलोक - आशंसा प्रयोग :- पारलौकिक सुखों की कामना करना अर्थात् मृत्यु के पश्चात् देव-देवेन्द्र
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परलोगास सप्पओम