Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 76
________________ स्वरूप विशेष को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। जिज्ञासा :- जब जीव की दृष्टि मिथ्या-विपरीत है तो उसमें मिथ्यात्वी जीव के स्वरूप को गुणस्थानक कैसे कहा जा सकता है ? समाधान :- यद्यपि मिथ्यात्वी जीव की दृष्टि विपरीत है तो भी वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूप में जानता तथा मानता है। इसलिए उसकी चेतना के स्वरूप विशेष को गुणस्थान कहते हैं। जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य का प्रकाश सर्वथा लुप्त नहीं होता अपितु दिन-रात का भेद किया जा सके इतना प्रकाश होता ही है, उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी जीव का दृष्टिकोण सर्वथा ढक नहीं जाता है, किन्तु आंशिक रूप में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है। इसके सिवाय निगोदिया जीव को भी आंशिक रूप से एक प्रकार का अव्यक्त स्पर्श मात्र उपयोग होता है। यदि न माना जाये तो निगोदिया जीव अजीव कहलायेगा। इसलिए मिथ्यात्वी जीव को भी गुणस्थानक माना जाता है। जिज्ञासा :- जब मिथ्यात्वी की दृष्टि को किसी अंश में यथार्थ होना मानते हैं तो उसे सम्यग्दृष्टि कहने और मानने में क्या आपत्ति है? समाधान :- यह ठीक है कि किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि यथार्थ होती है, लेकिन इतने मात्र में उसे सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि द्वादशांग सूत्रोक्त एक अक्षर पर भी जो विश्वास नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है, जैसे जमाली। सम्यक्त्वी जीव की यह विशेषता होती है कि "तमेव सच्चं निस्संकं, जं जिणेहिं पवेइयं" वह जिनेश्वर, सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित प्रत्येक अक्षर को सत्य मानता है व निशंक होकर श्रद्धान करता है। सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी जीव में यही मूलभूत अंतर है कि सम्यक्त्वी जीव को सर्वज्ञ कथित नवतत्वादि का यथार्थ स्वरूप समझ में आये अथवा न आये, वह उसे सर्वज्ञ प्ररूपित होने से संपूर्ण सत्य मानकर अखंड श्रद्धा से स्वीकार करता है। जबकि मिथ्यात्वी जीव स्वयं को समझ में आये उतना ही सत्य एवं जो न समझ में आये उसे असत्य एवं मिथ्या मानता है। अत: उसकी दृष्टि आंशिक सत्य होने पर भी उसे सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता। इस गुणस्थान पर रही हुई सभी आत्माओं का स्तर एक समान नहीं होता है। उनमें भी तारतम्य है। इस गुणस्थान पर रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती है जो राग-द्वेष की तीव्रता को दबाए हुए होती हैं। उनकी अनंतानुबंधी कषाय दमित होती है। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी तो नहीं होती है, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा होता है, इसे मार्गाभिमुख अवस्था भी कहते हैं। इनमें क्रमश: मिथ्यात्व की अल्पता sonbepe

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