Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 74
________________ चौदह गुणस्थान जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा विकासशील है। उसमें विकास की असीम सम्भावनाएँ रही हुई हैं। विकास तीन प्रकार का होता है - शारीरिक विकास, मानसिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास। आध्यात्मिक विकास का अर्थ है - आत्मा के भीतर रहे हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का विकास। प्रत्येक आत्मा में ये गुण कम या अधिक मात्रा में विद्यमान हैं। इन गुणों पर अज्ञान तथा मोह का आवरण छाया हुआ है। वह ज्यों-ज्यों घटता है, त्यों-त्यों आत्मा विकास के मार्ग पर आगे बढती है। इस विकास के स्तर को अर्थात् आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्था को गुणस्थान कहा जाता है या जीव द्वारा अपने विकास के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि की अपेक्षा से उपलब्ध स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहते हैं। वपक श्रेणी सूक्ष्म संपराठ अनिवृत्ति करण वा बादर संपराटा अपूर्व-करण या निवृत्ति करण अप्रमत्त सर्ववित 4600 24 सिदशिला प्रमत्त सर्वविरत अयोगि केवली Jain Education International 7 सयोगि केवली 7 वीण मोह •मिथ्यात्व गुणस्थान मोक्ष अनिवृत्ति करण या बादर संपराठा देशविरत + सूक्ष्म संपेराय अविरत सम्यक् दृष्टि मिश्र सास्वादन मोह संसार उपशांत मोह मिथ्यात्व गुणस्थान उपशम श्रेणी For Personal & Private Use Only 60***** गुणस्थान शब्द में स्थान शब्द अधिकरणवाची नहीं है बल्कि भेद दर्शक है। प्रत्येक वस्तु स्वाभाविक रूप से ही अपने-अपने गुण से युक्त होती है। नीम का गुण कडवाहट तो गन्ने का गुण मधुरता है, उसी प्रकार आत्मा का मुख्य गुण ज्ञान है। परन्तु मात्र ज्ञानावरणीय कर्म www.jainelibrary.org

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