Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ अनेकान्तवाद चिन्तन के क्षेत्र में जैन दर्शन का महत्वपूर्ण अवदान है - अनेकान्तवाद । अनेकान्तवाद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - अनेक और 'अन्त' । अनेक का अर्थ है - एक से अधिक और अन्त का अर्थ है गुण या स्वभाव । वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का सह-अस्तित्व मानना अनेकान्तवाद है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं। उसके अनंत पहलू हैं। अनंत धर्मो का एक साथ कथन किसी के वश की बात नहीं, क्योंकि भाषा की अपनी सीमा है। वस्तु के समग्र स्वरूप के प्रामाणिक प्रतिपादन के लिए यह आवश्यक है कि एक समय में वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य रूप से कहा जाय और शेष धर्मों को गौण रूप में स्वीकार किया जाय। इस मुख्य और गौण भाव को अर्पणा और अनर्पणा भी कहा गया हैं। इसलिए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है - 'अर्पितानर्पित सिद्धेः ' मुख्य और गौण भाव से अथवा अपेक्षा या अनपेक्षा से वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। अनेकांत वाद वस्तु तत्त्व को जानने का वह प्रकार है, जो विवक्षित (उस समय कहने योग्य मुख्य ) धर्म को जानकर भी अन्य धर्मो का निषेध नहीं करता, उन्हें गौण या अविवेक्षित कर देता है। एक व्यक्ति कवि है, लेखक है, वक्ता है, चित्रकार है, संगीतकार है और भी न जाने क्या क्या है । कविता-गोष्ठी में उसका कवि रूप सामने आता है पर उस समय उसकी दूसरी दूसरी विशेषताऐं समाप्त नहीं हो जाती । उसके लिए कोई यह कहे कि वह कवि ही है, अन्य कुछ नहीं तो इस कथन में सत्यता नहीं रहती । इसलिए स्याद्वाद को समझनेवाला व्यक्ति कहेगा कि एक अपेक्षा से वह कवि है किन्तु अन्य अपेक्षाओं से वह वक्ता, लेखक आदि भी है। इस प्रकार वस्तु में जो नित्य-अनित्य, भेद - अभेद, सामान्य-विशेष आदि विरोधी धर्म प्रतीत होते है, उन्हें यदि अपेक्षा भेद से देखे तो वे विरोधी नहीं प्रतीत होते । अन्य दर्शनकारों ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को पकडकर उसे ही समग्र वस्तु मान लेने की भूल की है। जैसे बौद्ध दर्शन वस्तु की क्षणिक पर्याय को ही समग्र वस्तु मान लेता है और वस्तु के द्रव्यात्मक नित्य पक्ष को सर्वथा अस्वीकार करता है । वेदान्त एवं सांख्य दर्शन वस्तु को सर्वथा निषेध करता है। नैयायिक एवं वैशेषिक दर्शन यद्यपि वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को मानते हैं तथापि वे किसी को सर्वथा नित्य मानते हैं और किसी को सर्वथा अनित्य मानते हैं। साथ ही वे पदार्थ के नित्यत्व और अनित्यत्व को पदार्थ से भिन्न मानते हैं, जबकि वह वस्तु का तादात्म्य स्वरूप है। ये दर्शनकार परस्पर विरोधी और एकांगी पक्ष को लेकर परस्पर विवाद करते हैं। उनका यह विवाद अन्ध न्याय की तरह है। जैसे पांच अन्धे व्यक्तियों ने हाथी को जानना चाहा। पहले अन्धे ने हाथी के पैरों को पकड़ा और कहा हाथी खम्भे जैसा होता है । दूसरे अन्धे ने हाथी की पूँछ को पकड़ा और कहा- हाथी खम्भे जैसा नहीं अपितु रस्सी जैसा होता है। तीसरे ने हाथी के मध्य भाग को छुआ और कहा - हाथी तो दीवार जैसा होता है। चौथे ने उसकी सूंड को पकड़ा और कहा - हाथी तो पेड की शाखा जैसा होता है । &43at -

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126