Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 60
________________ अस्तित्व धर्म तो है ही,नास्तित्व धर्म भी है। उसे नहीं समझा जायेगा तो वस्तु का पूर्ण बोध नहीं होगा। 2. स्याद् नास्ति - स्याद् नास्ति अर्थात् कथंचित् नहीं है। जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने (स्व) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्ववान है, वैसे ही वह दूसरे (पर) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं भी है। अस्तित्व और नास्तित्व की एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से सह अवस्थिति है, जैसे दृष्टियाँ स्वदृष्टि से अस्तित्व परदृष्टि से नास्तित्व 1. द्रव्य दृष्टि घड़ा मिट्टी द्रव्य का है घड़ा सोने का नहीं है। 2. क्षेत्र दृष्टि घड़ा दिल्ली क्षेत्र का है घड़ा अहमदाबाद का नहीं है। 3. काल दृष्टि घड़ा शीतकाल का घड़ा ग्रीष्मकाल बना हुआ है का नहीं है। 4. भाव दृष्टि घड़ा पानी रखने का है घड़ा घी रखने का नहीं है। 3. स्याद् अस्ति - नास्ति - किसी अपेक्षा से वस्तु है, और किसी अपेक्षा से नहीं भी है। घटादि पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्तिरूप है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है। ये दोनों बातें यहाँ क्रम से कही गई है। अतएव यह भंग प्रथम और द्वितीय भंगों का संयोगी भंग है। इसमें क्रमशः विधि-निषेध का रूप रहा हुआ है। 4. स्याद् अवक्तव्य - वस्तु में अस्तित्व-नास्तित्व दोनों धर्म एक साथ रहते हैं, किन्तु शब्द के द्वारा उन दोनों धर्मों का एक साथ कथन नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई शब्द नहीं है कि दोनों विरोधी धर्मों को एक साथ व्यक्त किया जा सके। एक साथ दोनों धर्मों का कथन न कर पाने की दृष्टि से वस्तु स्याद् अवक्तव्य है। “अवक्तव्य' के द्वारा एक साथ दोनों अर्थों का बोध हो जाता है। 5. स्याद् अस्ति अवक्तव्य - यह पहले और चौथे भंग के संयोग से बना है। वस्तु कथंचित् है फिर भी वह पूर्णरूप में अवक्तव्य है। प्रथम क्षण में स्वचतुष्टय का अस्तित्व और द्वितीय क्षण में युगपत् स्व-पर द्रव्य क्षेत्र आदि चतुष्टय रूप अवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा और दोनों समयों पर सामूहिक दृष्टि होने पर घटादि वस्तु स्याद् अस्ति अवक्तव्य भंग का विषय बनती है। अर्थात् प्रथम अस्तित्व को और तदनन्तर अवक्तव्य को क्रम से कहने की इच्छा होना स्याद् अस्ति अवक्तव्य है। ___6. स्याद् नास्ति अवक्तव्य - वस्तु कथंचित् नहीं है फिर भी पूर्णरूप में अवक्तव्य है। प्रथम क्षण में पर चतुष्टय का नास्तित्व और द्वितीय क्षण में युगपत् स्व-पर चतुष्टय रूप अवक्तव्य को A lor4hPANANDAARADASARAM ANANDAN

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