Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 63
________________ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ श्रावक सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत धारण करता है। किन्तु वह इतना करके ही नहीं रूक जाता है। वह व्रतों को निरतिचार पालन करने के लिए और उनमें ठोस दृढ़ता लाने के लिए विशेष प्रकार की प्रतिमाएँ लेता है। शास्त्र में इस प्रकार की विशेष प्रतिज्ञाओं को प्रतिमा (पडिमा) कहा गया है। प्रतिमा का अर्थ है - विशिष्ट साधना की प्रतिज्ञा। जिसमें श्रावक संकल्पपूर्वक अपने स्वीकृत यम नियमों का दृढ़ता से पालन कर जीवन के परमादर्श 'स्वस्वरूप' को प्राप्त कर लेने की ओर आगे बढता है। उत्तराध्ययन सूत्र में श्रावक की ग्यारह पडिमाओं का निरूपण किया है जिनके नाम और स्वरूप इस प्रकार है। 1. दर्शन प्रतिमा, 2. व्रत प्रतिमा, 3. सामायिक प्रतिमा, 4. पौषध प्रतिमा, 5. नियम (कायोत्सर्ग) प्रतिमा, 6. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, 7. सचितत्याग प्रतिमा, 8. आरम्भत्याग प्रतिमा, 9. प्रेष्यत्याग प्रतिमा, 10. उद्दिष्ट भत्त त्याग प्रतिमा और 11. श्रमणभूत प्रतिमा। 1. दर्शन प्रतिमा :- वैसे तो सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् ही वास्तविक श्रावकत्व आता है, अत: बारह व्रत धारण कर लेने से सम्यग्दर्शन का स्वयमेव उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसी स्थिति तमेव सच्च णिसंक में पुनः दर्शन प्रतिमा स्वीकार करने का क्या प्रयोजन है ? इसका समाधान यह है कि व्रत ग्रहण से पूर्व जो सम्यग्दर्शन होता है उसमें अतिचारों के लगने की संभावना रहती है जिससे उसमें मलिनता रह सकती है। अतएव उसका निराकरण करने के लिए और पूर्वगृहीत सम्यक्त्व का शंका-कांक्षा आदि अतिचारों से सर्वथा दूर रहकर शुद्ध रीति से पालन करने के लिए दर्शन-प्रतिमा स्वीकार की जाती है। इस प्रतिमा का समय एक मास है। एक मास पर्यन्त दर्शन में किसी प्रकार की मलिनता न आने देना और दर्शन को विशिष्ट दृढ़ता पर पहुँचा देना इस प्रतिमा का प्रयोजन है। 2. व्रत प्रतिमा :- दर्शन की परिपूर्णता - दृढ़ता हो जाने के पश्चात् व्रतों को दृढ़ करना होता है। अत: पूर्व स्वीकृत व्रतों को विशेष दृढ़ करने के लिए यह प्रतिमा अंगीकार की जाती है। बारह व्रतों में सामायिक एवं पौषध इन व्रतों को छोड़कर शेष व्रतों को इस प्रतिमा में दो मास तक अतिचार रहित निर्मल रीति से अविराधितरूप से पालन किया जाता है। Sisters 0000000000049

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