Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 39
________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAON 2. अनक्षरश्रुत - अक्षरों के बिना शरीर की चेष्टा आदि से होनेवाला ज्ञान अनक्षरश्रुत कहलाता है। जैसे सांस लेना, सांस छोड़ना, थूकना, खांसना एवं ऊँ-ऊँ आदि चेष्टा करना। इन चेष्टाओं में अक्षरों का उच्चारण न होते हुए भी इनके द्वारा दूसरों के भाव जाने जाते हैं तथा अपने भाव दूसरों को जताये जाते हैं, जैसे लंबे और भारी सांस लेने से मानसिक दुख या श्वास का रोग जताया जाता है तथा खांसकर अपने आगमन की सूचना दी जाती है। हाथ, पैर एवं नेत्र के इशारे भी इसी प्रकार समझ लेने चाहिए। यह सारा अनक्षरश्रुत है। 3. संज्ञीश्रुत - संज्ञी अर्थात् सोचने-विचारने की शक्ति जिस जीव में हो, उसे संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीवों का जो श्रुत ज्ञान है, उसे संज्ञीश्रुत कहते हैं। संज्ञी जीव तीन प्रकार के होते हैं - ____a) कालिक्यूपदेश संज्ञी - भूतकाल का स्मरण, अनागत का चिन्तन और वर्तमान काल की प्रवृत्तिनिवृत्ति रूप व्यापार जिस संज्ञा द्वारा होती है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है। ___b) हेतुपदेशिकी संज्ञा - केवल वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतुपदेशिकी संज्ञा है। ____c) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिताहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है। 4. असंज्ञी श्रुत - बिना मन वाले जीवों में जो अव्यक्त ज्ञान है, वह असंज्ञीश्रुत कहलाता है। मक्खी, मच्छर, भ्रमर आदि के गूंजन के शब्द भी इसी में समझने चाहिए। पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव यद्यपि बिल्कुल मूर्छित दशा में हैं, फिर भी उनमे आहार ग्रहण करने आदि का जो ज्ञान है, वह भी असंज्ञीश्रुत ही है। 5. सम्यक् श्रुत - केवलज्ञान और केवलदर्शन युक्त श्री अरिहंत भगवान ने आचारांग, अरिहंत सूत्रकृतांग आदि बारह अंग बताये हैं। उन अंगों (शास्त्रों) का ज्ञान सम्यक् श्रुत तथा चौदह पूर्वधारी से लेकर विच्छ पतंगा SadanangivaIA

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