Book Title: Jain Dharm Darshan Part 06
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 45
________________ अज्ञान अज्ञान के दो अर्थ हैं। 1. एक तो नहीं जानने का नाम अज्ञान है, जो ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से उत्पन्न होता है। ज्ञान का अभाव होना अज्ञान है। 2. दूसरा, मिथ्यात्वी व्यक्ति जो जानता है उसमें हित-अहित का विवेक न होने से उसका नाम भी अज्ञान है। अतः मिथ्यात्वी व्यक्ति के ज्ञान को भी अज्ञान कहा गया है। यह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। जैन दर्शन में ज्ञान और अज्ञान का अन्तर पात्रता के आधार पर किया गया है। सम्यग् दृष्टि के ज्ञान को ज्ञान माना गया है और वही ज्ञान यदि मिथ्यादृष्टि के पास है तो उसे अज्ञान माना गया है। यह अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का उदय नहीं, अपितु क्षयोपशम ही है। अज्ञान के प्रकार अज्ञान के तीन प्रकार हैं- 1. मति अज्ञान 2. श्रुत अज्ञान 3. विभंग अज्ञान 1. मति अज्ञान - मिथ्यादृष्टियों को इन्द्रियों और मन की सहायता से जो बुद्धि संबंधी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह मति अज्ञान है। इसके भी मतिज्ञान की तरह अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा ऐसे चार भेद है। 2. श्रुत अज्ञान - द्रव्य श्रुत के सहारे से मति अज्ञान जब दूसरों को समझाने लायक हो जाता है तब वही श्रुत अज्ञान कहलाने लगता है। इसका विवेचन श्रुतज्ञान के समान ही है। इसमें सम्यक् श्रुत को न लेकर मिथ्यादृष्टियों द्वारा रचित लौकिक शास्त्रों को ग्रहण किया गया है। 3. विभंग अज्ञान - सर्वज्ञभाषित तत्वों के प्रति विरूद्ध श्रद्धा रखने वाले मिथ्यादृष्टियों का अवधिज्ञान विभंग अज्ञान कहलाता है। यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन सभी गतियों में हो सकता है। प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान पाँच है तो अज्ञान तीन ही क्यों ? मनः पर्यव अज्ञान और केवल अज्ञान क्यों नहीं होता ? इसका समाधान यही है कि मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान मात्र सम्यगदृष्टि व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं, मिथ्यादृष्टि को नहीं। जबकि मति, श्रुत और अवधि तीनों ज्ञान मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि दोनों को समान रूप से प्राप्त होता है। इस दृष्टि से मनः पर्यव अज्ञान और केवल अज्ञान नहीं होते हैं। 31

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